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卐 सत्यराम सा 卐
*दादू गैब मांहिं गुरुदेव मिल्या, पाया हम परसाद ।*
*मस्तक मेरे कर धर्या, दिक्ष्या अगम अगाध ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi
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**श्री रज्जबवाणी गुरु संयोग वियोग माहात्म्य का अंग ९**
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भूत१ बात सुन भूत की, भूत होत क्या बेर ।
सोई बात बहु वदन सुन, सोन होत तो फेर ॥१३॥
भूत बात को सुन कर प्राणी२ को भूत होते देर नहीं लगती, किन्तु वही बात फिर परम्परा से बहुत मनुष्यों के मुख से सुनने पर भी वह भूत होना रूप कार्य तो नहीं होता तब उस बात में परिवर्तन अवश्य माना जायेगा । वैसे ही ब्रह्मवेता के मुख से महावाक्य सुनने पर ब्रह्म प्राप्ति में कुछ भी देर नहीं लगती । वही महावाक्य ब्रह्मवेता से भिन्न अनेक परोक्ष ज्ञानी सुनाते हैं किन्तु उससे कोई भी द्वन्द्वों से मुक्त होकर ब्रह्मनिष्ठ नहीं होता ।
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रज्जब वपु वायक मिलत, फहम१ करहु बहु फेर ।
मनसा वाचा कर्मना, हाजिर हडका२ हेर२ ॥१४॥
एक तो सद्गुरु सन्मुख स्थिर होकर उपदेश करें और एक उनका वचन परम्परा से सुनें । विचार१ करके देखो३, इन दोनों बातों में बहुत अन्तर है । वचन मात्र सुनने से मन वचन कर्म से उनके सम्मुख उपस्थित होने की अति उत्कंठा२ होती है ।
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साधु१ सिंह के शब्द सु शंकित२, दर्श दुखी परस३ नास ।
रज्जब कही विचार कर, त्रिविधि भांति की त्रास ॥१५॥
जैसे सिंह के शब्द सुनने से व्यक्ति चिंतित२ होता है, सिंह को देखने से दुखी होता है और सिंह पकड़ले३ तो नाश ही हो जाता है । वैसे ही श्रेष्ठ१ गुरु शब्द से त्रिताप चिंतित होती है, दर्शन से व्यथित होती है और स्वरूप साक्षात्कार होने पर नष्ट हो जाती है, यह हमने विचार कर के ही कहा है ।
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गुरु अगनी सेवा त्रिविधि, देख ताप सत माँहिं ।
जन रज्जब मुर१ मामले२, एक बंदगी नाँहिं ॥१६॥
अग्नि में काष्ठ डालना, वायु देना और जल से बचाना यही तीन प्रकार की अग्नि की सेवा है । वैसे ही गुरु में भी देखो, सत्य रूप ताप है, अत: उनको भी भोजन देना, उनके साधन में विध्न न होने देना, अनुकूल वातावरण से प्रसन्न रखना, यही तीन प्रकार की सेवा है, वा तन मन वचन से सेवा करना ही त्रिविधि सेवा है । इन तीन१ कामों२ के लिये एक प्रकार की सेवा नहीं होती, तीन प्रकार की ही होती है ओर गुरु संयोग से ही होती है, वियोग होने पर नहीं होती ।
(क्रमशः)
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