शनिवार, 25 नवंबर 2017

= १८३ =


卐 सत्यराम सा 卐
*न तहाँ चुप ना बोलणां, मैं तैं नांहीं कोइ ।*
*दादू आपा पर नहीं, न तहाँ एक न दोइ ॥* 
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साभार ~ oshoganga.blogspot.com

भगवान बुद्ध का उल्लेख प्रासंगिक है। सारे गुरु बुद्ध से ऊब गए। वे पक्के जिद्दी थे, छः वर्षोँ तक जिसने जो कहा - सही, गलत; संगत, असंगत-सब बुद्ध ने पूरा किया, पूरी निष्ठा से पूरा किया।
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एक भी गुरु ये न कह सका कि तुम पूरा नहीँ कर रहे, क्योँकि बुद्ध इतना पूरा कर रहे थे कि गुरुओँ तक ने क्षमा मांग ली कि जब तुम्हें हो जाए तो हमें सन्देश देना। क्योँकि जो वे गुरु जानते थे, पूरा बता दिये थे। ऐसा न था कि जो बताया था उससे उन गुरुओँ को नहीँ हुआ था, उनको हुआ था। कारण था, गुरुओँ ने क्रिया की थी बिना किसी लक्ष्य की वासना के।
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बुद्ध को लक्ष्य प्रगाढ़ था। क्रिया मे संलग्न थे लेकिन दृष्टि लक्ष्य पर थी कि कब सत्य, कब आनंद, कब मोक्ष मिले। लक्ष्य की वासना बाधा बन रही थी। छः वर्षोँ के बाद आखिर बुद्ध भी थक गए और एक दिन सब छोड़ दिया। संसार पहले ही छोड़ चुके थे, भोग पहले ही छोड़ चुके थे, अब निर्णय आ गया अंतस मे कि कुछ नहीँ करना। अब नहीँ नहीँ खोजना। समझ लिया कि मिलना नहीँ कुछ। श्रम, प्रयास चरम हो गया था, छोड़ दिया।
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प्रथम रात्रि थी अनेक-२ जन्मोँ से जब बुद्ध ऐसे सोए कि सुबह करने को कुछ बाकी न था। कल का कोई अर्थ न था। मनुष्य ने जिसकी वासना नहीँ की जा सकती, उसकी वासना करके भूल कर ली है। संसार मे अधर्म तब तक बढ़ता जाएगा जब तक मनुष्य धर्म की भी वासना करता है। जो असफलता की हताशा प्राणोँ मे गहरे बैठ गई है, उसे तोड़ना सबसे बड़ी कठिनाई है। 
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यदि कोई तोड़ना चाहता है तो एक ही उपाय दिखता है कि मनुष्य की वासना को जगाए और कहे कि इससे सब मिल जाएगा, तभी मनुष्य हिम्मत जुटाता है। लेकिन फिर वही दुश्चक्र, वासना ही तो सारे उपद्रव की जड़ है। आनंद उपलब्ध हो सकता है, लेकिन मनुष्य आनंद को लक्ष्य न बनाए। वह लक्ष्य नहीँ है। परम शांति हो सकती है, लेकिन लक्ष्य न बनाए। वह लक्ष्य नहीँ है। 
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लक्ष्य मनुष्य बनाए स्वयं के भीतर थिरता को, भीतर रुक जाने को, भीतर स्थिर हो जाने को - परिणाम मे आनंद चला आएगा। वह आता ही है। पूरा जीवन ऐसा है।जो भी महत्वपूर्ण है चुपचाप घटता है। जो भी गहरा है, उसे लक्ष्य नहीँ बनाना होता। लक्ष्य बनाने से उसका द्वार बंद हो जाता है। 
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अनायास और आकस्मिक घटता है आनंद। कैसे पा लेँ आनंद को? कैसे नहीँ पाया जाता। करे ऐसा कि इतना डूब जाए कि स्वयं की खबर न रहे, आनंद की भी खबर न रहे....
अचानक मनुष्य पाएगा आनंद ही आनंद रह गया।

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