卐 सत्यराम सा 卐
*ऐसा है हरि दीनदयाल, सेवक की जानैं प्रतिपाल ।*
*चलु हंसा तहँ चरण समान, तहँ दादू पहुँचे परिवान ॥*
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साभार ~ Chetna Kanchan Bhagat
**परिस्थितियों में सकारात्मकता की दृष्टि**
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एक आदमी के पैर में चोट लगी है । वह बहुत बेचैन, दुःखी है और परमात्मा की निंदा करता है । एक मकान की बड़ी मन्ज़िल में न्यूयॉर्क की एक लिफ्ट में सवारी कर रहा है। जैसे ही लिफ्ट ऊपर उठने लगी उसने देखा की लिफ्ट पर एक आदमी भी सवार है । उसके दोनों पैर कटे हुवे हैं, वह कुर्सी पर बैठा हुआ है, और हंस रहा है और गीत गुनगुना रहा है।
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उसके पैर में तो जरा सी चोट लगी थी, वह परमात्मा के प्रति क्रोध से भरा हुआ था। उसने उस आदमी से पूछा 'मेरे दोस्त, तुम्हारे पास क्या है? तुम्हारे दोनों पैर कटे हुए हैं और तुम गीत गुनगुना रहे हो'। उस आदमी ने कहा, 'मेरी दोनों आँखे शेष हैं, मेरे दोनों हाथ भी अभी शेष हैं । मैंने ऐसा आदमी भी देखा है जिसके दोनों हाथ भी कट गए हैं । मैंने ऐसा आदमी भी देखा है जिसकी दोनों आँखें भी नहीं थीं। दोनों पैर ही गए तो क्या हुआ ? अभी मेरे दोनों हाथ शेष हैं, दोनों आँखें शेष हैं, अभी और सब कुछ तो शेष है । मैं, दो पैर जो चले गए उसके लिए भगवान के प्रति क्रोध प्रकट करूँ या जो मेरे पास शेष है उसके लिए धन्यवाद दूँ ?
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हम क्या करें ? जो हमारे पास है उसके लिए धन्यवाद दें या जो हमारे पास नहीं है उसके लिए शिकायत करें? मर्ज़ी है आदमी की, जो चाहे करे । शिकायत करे या प्रशंषा करे, कोई कुछ कहने नहीं जाएगा, लेकिन दोनों हालतों में जमीं और आसमाँ का फर्क पड जाएगा और उस फर्क से खुद को पीड़ा झेलनी पड़ेगी। शिकायत करने वाला मन धीरे धीरे उदास हो जाता है, और निराश हो जाता है । धन्यवाद देने वाला मन धीरे धीरे आनंद से भर जाता है, प्रफुल्लता से, आशा से। जो आशा से भर जाता है, वह आगे कदम उठा सकता है । जो निराशा से भर जाता है उसके कदम पीछे लौटने लगते हैं । तो मैं आपसे कहूँगा, अपनी परिस्थितियों को खोजें, कि क्या वहाँ आशापूर्ण कोई भी सम्भावना नहीं ???
ओशो...
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