गुरुवार, 28 दिसंबर 2017

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卐 सत्यराम सा 卐
*कछू न कीजे कामना, सगुण निर्गुण होहि ।*
*पलट जीव तैं ब्रह्म गति, सब मिलि मानैं मोहि ॥* 
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साभार ~ oshoganga.blogspot.com
असिद्ध का अर्थ है,जैसा मनुष्य है, अभी कुछ करना शेष है, अभी कुछ होगा तो सुख होगा, कुछ पूरा करना है, कुछ पाना है। असिद्ध का सुख आश्रित है। धन मिल जाए, स्त्री मिल जाए, पद मिल जाए, ये हो जाए, वो हो जाए- तब सुख मिलेगा। सुख सशर्त है।
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सिद्ध को स्वयं के होने मे ही सुख है। कुछ मिले, न मिले। छिन जाए, आ जाए। सुख किसी पर निर्भर नहीँ है। स्वयं के होने पर ही निर्भर है। हूं, इतना ही पर्याप्त है। सुख बेशर्त है सिद्ध का। अभी और यहीँ सुख है। मनुष्य का सुख सदा कभी और कहीँ है, अभी और यहीँ कभी मनुष्य सुखी नहीँ होता। अभी और यहीँ तो सब दुखी होते हैँ। सुख होता है कहीँ आगे, कहीँ आगे। असिद्ध का ये लक्षण है।
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सिद्ध का लक्षण है- कोई हो स्थिति, कुछ हो बाहर, भीतर की सुख-धार मे जरा भी अंतर नही पड़ता। शर्त यदि है तो दुख रहेगा। कोई शर्त कभी पूरी नहीँ होती। और यदि पूरी भी हो जाए तो शर्तेँ बनाने वाला मन नयी शर्तेँ बनाने लगता है। सच तो ये है कि पुरानी शर्त तभी गिरती है,जब नई शर्त भीतर जन्म लेने लगती है। बेशर्त जीवन मे ही अभी और यहीँ सुख है। अकारण सुख का अर्थ है कि सुख भीतर से आ रहा है, भीतर है सुख का स्त्रोत और वह स्त्रोत स्वयं का है। ये सारा जगत विलीन हो जाए, ये सारे लोग खो जाएं, तो भी सिद्ध के सुख मे कोइ अंतर नहीँ आएगा।
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और मनुष्य के लिये? जैसा मनुष्य चाहता है, ठीक वैसा जगत बना दिया जाए, तो भी उसके दुख में कोई अंतर नहीँ आएगा। मनुष्य और दुखी हो जाएगा क्योँकि जब मांगे पूरी हो जाती हैँ, तब पता चलता है कि इतना श्रम किया और पाया कुछ भी नहीँ। इस कारण दुख और बढ़ जाता है। 'अपने अनुभव से स्वयं ही अपनी आत्मा को अखंडित जान कर तू सिद्ध हो, और निर्विकल्प स्वरुप आत्मा से ही अत्यंत सुखपूर्वक स्थिति कर।' उसमें बना रह, उसमें रुका रह, उसमें ठहर, स्थिति कर। उसमें ही लीन हो जा। इसका स्मरण रखे मनुष्य। उठते, बैठते, बेशर्त सुख की खोज करे।

चलते, सोते, जागते, खाते, पीते- परिस्थिति कुछ भी हो- बेशर्त सुख की तलाश करे। सुखी रहे। मनुष्य कहेगा कैसे सुखी रहेँ? क्योँकि उसने तो सदा सुख को बाहर से आते जाना है। भीतर से सुखी रहेँ, ये मनुष्य के समझ मे नहीँ आएगा। उसने कभी जाना ही नहीँ है भीतर का सुख। इसकी खोज करेँ। भीतर सुख भरा है, केवल तोड़ना है पर्दा-शर्त का। मनुष्य पाएगा कि भर गया सुख से, इतना भर गया कि चाहे तो अपने सुख से सारे जगत को भर दे।

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