गुरुवार, 28 दिसंबर 2017

= २९ =

卐 सत्यराम सा 卐
*दादू ऐसे महँगे मोल का, एक सांस जे जाइ ।*
*चौदह लोक समान सो, काहे रेत मिलाइ ॥* 
*जतन करै नहीं जीव का, तन मन पवना फेर ।*
*दादू महँगे मोल का, द्वै दोवटी इक सेर ॥* 
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साभार ~ Chetna Kanchan Bhagat

**!! चन्दन के कोयले न बनाओ !!**
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सुनसान जंगल में एक लकड़हारे से पानी का लोटा पीकर प्रसन्न हुआ राजा कहने लगा―"हे पानी पिलाने वाले ! किसी दिन मेरी राजधानी में अवश्य आना, मैं तुम्हें पुरस्कार दूँगा।" लकड़हारे ने कहा―बहुत अच्छा।
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इस घटना को घटे पर्याप्त समय व्यतीत हो गया। अन्ततः लकड़हारा एक दिन चलता-फिरता राजधानी में जा पहुँचा और राजा के पास जाकर कहने लगा―"मैं वही लकड़हारा हूँ, जिसने आपको पानी पिलाया था।" राजा ने उसे देखा और अत्यन्त प्रसन्नता से अपने पास बिठाकर सोचने लगा कि "इस निर्धन का दुःख कैसे दूर करुँ?" अन्ततः उसने सोच-विचार के पश्चात् चन्दन का एक विशाल उद्यान=बाग उसको सौंप दिया। लकड़हारा भी मन में प्रसन्न हो गया। चलो अच्छा हुआ। इस बाग के वृक्षों के कोयले खूब होंगे। जीवन कट जाएगा।
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यह सोचकर लकड़हारा प्रतिदिन चन्दन काट-काटकर कोयले बनाने लगा और उन्हें बेचकर अपना पेट पालने लगा। थोड़े समय में ही चन्दन का सुन्दर उद्यान=बगीचा एक वीराना बन गया, जिसमें स्थान-स्थान पर कोयले के ढेर लगे थे। इसमें अब केवल कुछ ही वृक्ष रह गये थे, जो लकड़हारे के लिए छाया का काम देते थे।
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राजा को एक दिन यूँ ही विचार आया। चलो, तनिक लकड़हारे का हाल देख आएँ। चन्दन के उद्यान का भ्रमण भी हो जाएगा। यह सोचकर राजा चन्दन के उद्यान की और जा निकला। उसने दूर से उद्यान से धुआँ उठते देखा। निकट आने पर ज्ञात हुआ कि चन्दन जल रहा है और लकड़हारा पास खड़ा है। दूर से राजा को आते देखकर लकड़हारा उसके स्वागत के लिए आगे बढ़ा। राजा ने आते ही कहा―"भाई ! यह तूने क्या किया?" लकड़हारा बोला―"आपकी कृपा से इतना समय आराम से कट गया। आपने यह उद्यान देकर मेरा बड़ा कल्याण किया। कोयला बना-बनाकर बेचता रहा हूँ। अब तो कुछ ही वृक्ष रह गये हैं। यदि कोई और उद्यान मिल जाए तो शेष जीवन भी व्यतीत हो जाए।"
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राजा मुस्कुराया और कहा―"अच्छा, मैं यहाँ खड़ा होता हूँ। तुम कोयला नहीं, प्रत्युत इस लकड़ी को ले-जाकर बाजार में बेच आओ।" लकड़हारे ने दो गज[लगभग पौने दो मीटर] की लकड़ी उठाई और बाजार में ले गया। लोग चन्दन देखकर दौड़े और अन्ततः उसे तीस रुपये मिल गये। लकड़हारा मूल्य लेकर रोता हुआ राजा के पास आय और जोर-जोर से रोता हुआ अपनी भाग्यहीनता स्वीकार करने लगा।
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इस कथा में चन्दन का बाग मनुष्य का शरीर है। इसका एक-एक श्वास चन्दन का वृक्ष है। जब ईश्वररुपी राजा किसी कर्म अथवा ईश्वर भक्ति से प्रसन्न होकर मनुष्य शरीररुपी बाग देता है तो मनुष्य के सुख-सौभाग्य तथा धनाढ्य होने का समय आता है, परन्तु कष्ट ! महाकष्ट !! मूर्ख मनुष्य इसे विषय भोग की अग्नि में जला-जलाकर कोयला बना देता है। हम सब भी ऐसा ही कर रहे हैं, परन्तु अभी चन्दन के वृक्ष शेष हैं। आओ, इनसे लाभ उठाएँ। ईश्वरभक्ति और शुभकर्मों में जीवन को लगाएँ।

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