शुक्रवार, 26 जनवरी 2018

= भजन भेद का अंग २१(१७-२०) =

#daduji

卐 सत्यराम सा 卐
*देखा देखी सब चले, पार न पहुँच्या जाइ ।*
*दादू आसन पहल के, फिर फिर बैठे आइ ॥* 
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**श्री रज्जबवाणी** 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi 
*भजन भेद का अंग २१*
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सुमिरन लागे लोग बहु, पर लही न ठावी ठौर । 
रज्जब मिलिये राम सौं, वह अराध कोइ और ॥१७॥ 
यद्यपि बहुत लोग स्मरण में लगते रहे हैं किन्तु अपना निश्चित ब्रह्मरूप स्थान सभी को नहीं मिलता, जिस निष्काम आराधना के द्वारा राम से मिला जाता है, वह आराधना सकाम आराधना से भिन्न ही है । 
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औषधि अकल अराध है, सब संतन की साखि । 
रज्जब रोग न तन रहै, कोई ल्यो पछ राखि ॥१८॥ 
सभी संत यह साक्षी देते है कि कला विभाग से रहित परमात्मा की उपासना ही औषधि है, उस औषधि को दैवी गुण धारण रूप पथ्य रख करके कोई भी सेवन करे उसके शरीर में काम क्रोधादि रोग नहीं रहेंगे । 
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नाम नेह बिन लीजिये, ज्यों रूखा खाया नाज । 
रज्जब पुष्ट न प्राण ह्वै, मरे न जीवन साज ॥१९॥ 
प्रेम बिना नाम का उच्चारण करना रूखा नाज खाने के समान है, रूखे नाज से प्राणी का शरीर पुष्ट नहीं होता, खाने वाला न तो मरता है और न सुखपूर्वक जीवित ही रहता है । वैसे ही बिना प्रेम नाम उच्चारण करने से विशेष लाभ नहीं होता और न वह मुक्त होता है और न विषयों में उसे आनन्द मिलता है । 
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काचे पाके रूखे सूखे, नाम नाज नहिं दोष । 
पै छप्पन भोग सहित जु जीजे१, सो कुछ औरे पोष ॥२०॥ 
कच्चा हो वा पक्का हो रूखा हो वा सूखा, नाज से पोषण होने में तो कोई दोष नहीं किन्तु छप्पन भोग सहित भोजन जीमने१ से पोषण होता है वह तो विलक्षण ही होता है, वैसे ही नाम से तो लाभ ही होता है किन्तु विवेक, वैराग्य, चित्त स्थैर्यादि के सहित निज नाम के चिन्तन से जो आनन्द होता है वह कुछ विलक्षण ही होता है ।
(क्रमशः)

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