卐 सत्यराम सा 卐
*रस ही में रस बरषि है, धारा कोटि अनंत ।*
*तहाँ मन निश्चल राखिये, दादू सदा बसंत ॥*
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'कैवल्य' का अर्थ है - ऐसा क्षण आ जाए, जब चैतन्य पूर्णतया अकेला हो जाए, लेकिन चेतना को अकेलापन न लगे। एकाकी हो जाए, फिर भी दूसरे की अनुपस्थिति पता न चले। अकेला हो जाए, तो भी ऐसा पूर्ण हो जाए कि दूसरा पूर्णता प्रदान करे इसकी पीड़ा न रहे। 'कैवल्य' का अर्थ है - इस भांति हो जाना कि स्वयं के होने में सब समा जाए। ये मनुष्य के गहनतम प्राणोँ मे छिपी अभीप्सा है। सारा दुख सीमाओँ का दुख है, बंधन का दुख है। सारा दुख है - पूर्ण नही हूं, अधूरा हूं।
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और पूरा होने के लिये न मालूम कितनी-२ वस्तुओं की आवश्यकता है। सब मिल भी जाता है तब भी अधूरापन कायम रहता है। तो एक आकांक्षा मनुष्य के भीतर जागी, जिसे 'धर्म' कहते हैँ, कि कहीँ ऐसा तो नहीँ है कि जिसे पाने को चलता है मनुष्य, उसको पा लेने पर भी पूर्णता जब नहीँ मिलती तो उन्हें पाने की यात्रा ही व्यर्थ और गलत हो। कोई और मार्ग खोजा जाए, जहां वस्तुओँ से पूर्णता नहीँ आती, बल्कि मनुष्य ही पूर्ण हो जाता है। जिन्हों ने भी गहन खोज की उन्हें लगा कि मनुष्य तब तक आनंद को न पा सकेगा, जब तक कोई भी आवश्यकता किसी और पर निर्भर है। जब तक दूसरा जरुरी है, तब तक दुख रहेगा। आनंद का सारभूत जो है, वह है स्वतंत्रता।
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इस परम स्वतंत्रता को भारतीय मनीषा ने 'मोक्ष' कहा है। इस परम स्वतंत्रता को 'निर्वाण' कहा है। और इसी परम स्वतंत्रता को 'कैवल्य' कहा है। 'मोक्ष' कहा है, क्योँकि वहां कोई बंधन नहीँ है। 'निर्वाण' कहा है क्योँकि वहां स्वयं का होना भी मिट जाता है - केवल अस्तित्व रह जाता है। मनुष्य जब कहता है कि मै हूं, तब दो शब्दोँ मैं और हूं का प्रयोग करता है। 'निर्वाण' कहा क्योँकि उस क्षण मैं मिट जाता है, केवल हूं, होना मात्र रह जाता है। मैं भाव नहीँ होता, बस हूं होता है। और 'कैवल्य' कहा क्योँकि सभी कुछ मैं में समा जाता है। मैं फैलकर इस ब्रह्माण्ड के साथ एक हो जाता है। मैं ब्रह्म हो गया होता है।
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एक बच्चे को खेलने के लिये खिलौना देते हैँ, खिलौने से प्रेम हो जाता है सघन।बच्चा खिलौने के बिना रात सो भी नहीँ पाता। लेकिन शीघ्र ही वह क्षण आएगा कि खिलौना यहां-वहां पड़ा रह जाएगा। खिलौने से जो प्रेम का अनुभव हुआ, वह साथ चल पड़ेगा, प्रेम का जो द्वार खुला, वह साथ रह जाएगा। जब भी किसी और को भी प्रेम करेगा, तो उस खिलौने की भूमिका भी उस प्रेम में रहेगी। बच्चा वयस्क होकर किसी मनुष्य से प्रेम करने लगे और इस के बिना भी न सो सके, भूल जाए खिलौने को। उस व्यक्ति के लिये भी वैसे ही रोने लगे जैसे खिलौने के लिये रोया था, और भूल जाए कि जिस खिलौने के लिये रोया था, उसे भी एक दिन छोड़ दिया; याद भी न आई कि वह खिलौना कहां है ! अब उसका पता भी नहीँ है।
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लेकिन यदि वह बच्चा शरीर से ही नहीँ, मन से भी वयस्क हो जाए; एक भीतरी प्रौढ़ता आ जाए, तो एक दिन ये बाहर का खिलौना भी ऐसे ही भूल जाएगा। इस बाहर के व्यक्ति से जो प्रेम का नाता बना था, जो रस पाया था; वह और सघन होकर भीतर भर जाएगा। ये प्रेम भक्ति बनेगा और जिस दिन ये प्रेम भक्ति बनेगा और भगवान की तरफ बढ़ेगा, उस दिन याद भी न आएगी प्रेमी की और खिलौने की - लेकिन उनका भी योगदान होगा।
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भक्ति भी तब तक पूर्ण नहीँ होती, जब तक भक्त ही भगवान न हो जाए। एक दिन आखिरी खिलौना-भगवान-भी छूट जाता है। और तब वो ही शेष रह जाता है, जो बचा इन सब अनुभवोँ में - प्रेम ! सब खिलौने छूट जाते हैँ। लेकिन खिलौनोँ से जिसे पाने में सहायता मिली थी वह बच जाता है। सब रुप छूट जाते हैँ, लेकिन वह जो अरुप प्रेम है वह धीरे-2 संग्रहीत होता जाता है, संग्रहीत होता जाता है। एक क्षण ऐसा आता है कि भक्त केवल प्रेम रह जाता है। उस क्षण वो परमात्मा हो जाता है।
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