गुरुवार, 1 फ़रवरी 2018

= भजन भेद का अंग २१(४१-४३) =

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卐 सत्यराम सा 卐
*तन में मन आवै नहीं, चंचल चहुँ दिशि जाइ ।*
*दादू मेरा जीव दुखी, रहै न राम समाइ ॥* 
*कोटि यत्न कर कर मुये, यहु मन दह दिशि जाइ ।*
*राम नाम रोक्या रहै, नाहीं आन उपाइ ॥* 
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**श्री रज्जबवाणी** 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi 
*भजन भेद का अंग २१*
सब अक्षर सांई सुमिर, दे दिव्य दृष्टि दास । 
रज्जब रत रह राम में, त्यों ही प्राण पचास ॥४१॥ 
हे दिव्य दृष्टि भक्त ! सभी अक्षरों के द्वारा प्रभु का स्मरण कर, जैसे 'राम' इन दो अक्षरो में भक्त प्राणी रत रहते हैं, वैसे ही अन्य पचास अक्षरों में रत रहना चाहिये अर्थात ईश्वर के विभिन्न नामों में सभी अक्षर आते हैं, उन नामों से स्मरण करना ही अन्य पचास अक्षरों से स्मरण करना है ५२ ही अक्षर हैं । 
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बावन अक्षर करि भजे, वेत्ता बावन वीर । 
रज्जब सुध बुद्धि का, ररै ममै में सीर ॥४२॥ 
बावन अक्षरों से बनने वाले विविध शब्दों को समझने में वीर ज्ञानी जन तो बावन अक्षरों के द्वारा प्रभु का भजन करते हैं, किन्तु जो सरल, शुद्ध बुद्धि के अधिकारी जन हैं उनका तो रकार मकार से बने राम नाम के स्मरण में ही साझा है अर्थात अधिकार है । 
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रज्जब रहे न नाम बल, नेह बिना मन थीर । 
ज्यों चूने बिन पाथरहुं रोक्या रहै न नीर ॥४३॥
जैसे चूना लगाये बिना केवल पत्थरों की दीवाल से पानी नहीं रुकता, निकलता रहता है, वैसे ही प्रभु में प्रेम किये बिना केवल नाम-स्मरण के बल से ही मन प्रभु में स्थिर नहीं रहता ।
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इति श्री रज्जब गिरार्थ प्रकाशिका सहित भजन भेद का अंग २१ समाप्त । सा. ७३७ ॥
(क्रमशः)

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