











तहँ खेलूं पीव सूं नित ही फाग,
देख सखी री मेरे भाग ॥टेक॥
तहँ दिन दिन अति आनन्द होइ,
प्रेम पिलावै आप सोइ ।
संगियन सेती रमूं रास,
तहँ पूजा अर्चा चरण पास ॥१॥
तहँ वचन अमोलक सब ही सार,
तहँ बरतै लीला अति अपार ।
उमंग देइ तब मेरे भाग,
तिहि तरुवर फल अमर लाग ॥२॥
अलख देव कोइ जाणैं भेव,
तहँ अलख देव की कीजै सेव ।
दादू बलि बलि बारंबार,
तहँ आप निरंजन निराधार ॥३॥
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साभार ~ Krishnacharandas Aurobindo
**श्रीराधा का गोकुल में अवतार लेने का कारण**
एक बार नारदजी ने भगवान नारायण से कहा – मेरे पिता ब्रह्माजी ने मुझे आपके पास ज्ञान प्राप्त करने के लिए भेजा है। मैं आपका शरणागत शिष्य हूँ। आप मुझे बताइए कि श्रीहरि की प्रेयसी गोलोकवासिनी श्रीराधा व्रज में व्रजकन्या होकर क्यों प्रकट हुईं?
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भगवान नारायण ने कहा – ‘पिता का स्वभाव पुत्र में अवश्य ही प्रकट होता है। तुम्हारा जन्म ब्रह्माजी के मानस से हुआ है। जिसका जिस कुल में जन्म होता है, उसकी बुद्धि उसके अनुसार ही होती है। तुम्हारे पिता श्रीकृष्ण के चरणारविन्दों की सेवा से ही विधाता के पद पर प्रतिष्ठित हुए हैं। वे नित्य निरन्तर नवधा भक्ति का पालन करते हैं। अब मैं तुम्हें गोलोकवासिनी श्रीराधा व्रज में व्रजकन्या होकर क्यों प्रकट हुईं, इसका रहस्य बताता हूँ।’
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पूर्वकाल में घटित यह प्रसंग गोलोक धाम का है। श्रीकृष्ण की तीन पत्नियां हुईं – श्रीराधा, विरजा और भूदेवी। इन तीनों में श्रीकृष्ण को श्रीराधा ही सबसे प्रिय हैं। एक दिन भगवान श्रीकृष्ण एकान्त कुंज में विरजादेवी के साथ विहार कर रहे थे। श्रीराधा सखियों सहित वहां जाने लगीं। उस निकुंज के द्वार पर भगवान श्रीकृष्ण द्वारा नियुक्त पार्षद श्रीदामा पहरा दे रहा था। श्रीदामा गोप ने उन्हें रोका। इस पर श्रीराधा क्रोधित हो गईं। सखियों का कोलाहल सुनकर श्रीकृष्ण वहां से अन्तर्धान हो गए। दु:खी होकर विरजाजी नदी बन गयीं और गोलोक में चारों ओर प्रवाहित होने लगीं। जैसे समुद्र इस भूतल को घेरे हुए है, उसी प्रकार विरजा नदी गोलोक को अपने घेरे में लेकर बहने लगीं। उनके व श्रीकृष्ण के जो सात पुत्र थे, वे लवण, इक्षु, सुरा, घृत, दधि, दुग्ध और जलरूप सात समुद्र होकर पृथ्वी पर आ गए।
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इस पर श्रीराधा ने श्रीदामा को शाप दे दिया कि ‘तुम असुरयोनि को प्राप्त हो जाओ और गोलोक से बाहर चले जाओ।’ तब श्रीदामा ने भी श्रीराधा को यह शाप दिया कि ‘श्रीकृष्ण सदा तुम्हारे अनुकूल रहते हैं, इसीलिए तुम्हें इतना मान हो गया है। आप भी मानवी-योनि में जाएं। वहां गोकुल में श्रीहरि के ही अंश महायोगी रायाण नामक एक वैश्य होंगे। आपका छायारूप उनके साथ रहेगा। अत: पृथ्वी पर मूढ़ लोग आपको रायाण की पत्नी समझेंगे, अत: परिपूर्णतम परमात्मा श्रीकृष्ण से भूतल पर कुछ समय आपका वियोग हो जाएगा।’
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इस प्रकार परस्पर शाप देकर अपनी ही करनी से भयभीत होकर श्रीदामा और श्रीराधा दोनों ही दु:खी हुए और चिन्ता में डूब गए। तब स्वयं श्रीकृष्ण वहां प्रकट हुए। श्रीकृष्ण ने श्रीदामा को सान्त्वना देते हुए कहा–‘तुम त्रिभुवनविजेता सर्वश्रेष्ठ शंखचूड़ नामक असुर होओगे और अंत में श्रीशंकरजी के त्रिशूल से मृत्यु को प्राप्त होकर यहां मेरे पास लौट आओगे।’ भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीराधा से कहा – ‘वाराहकल्प में मैं पृथ्वी पर जाऊँगा और व्रज में जाकर वहां के पवित्र वनों में तुम्हारे साथ विहार करुंगा। मेरे रहते तुमको क्या चिन्ता है? श्रीदामा के शाप की सत्यता के लिए कुछ समय तक बाह्यरूप से मेरे साथ तुम्हारा वियोग रहेगा।’
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ब्रह्मवैवर्तपुराण के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण ने गोपों और गोपियों को बुलाकर कहा – ‘गोपों और गोपियो ! तुम सब-के-सब नन्दरायजी का जो उत्कृष्ट व्रज है, वहां गोपों के घर-घर में जन्म लो। राधिके ! तुम भी वृषभानु के घर अवतार लो। वृषभानु की पत्नी का नाम कलावती है। वे सुबल की पुत्री हैं और लक्ष्मी के अंश से प्रकट हुई हैं। वास्तव में वे पितरों की मानसी कन्या हैं। पूर्वकाल में दुर्वासा के शाप से उनका व्रजमण्डल में गोप के घर में जन्म हुआ है। तुम उन्हीं कलावती की पुत्री होकर जन्म ग्रहण करो। नौ मास तक कलावती के पेट में स्थित गर्भ को माया द्वारा वायु से भरकर रोके रहो। दसवां महीना आने पर तुम भूतल पर प्रकट हो जाना। अपने दिव्यरूप का परित्याग करके शिशुरूप धारण कर लेना। तुम गोकुल में अयोनिजारूप से प्रकट होओगी। मैं भी अयोनिज रूप से अपने-आप को प्रकट करूंगा; क्योंकि हम दोनों का गर्भ में निवास होना सम्भव नहीं है। मैं बालक रूप में वहां आकर तुम्हें प्राप्त करूंगा। तुम मुझे प्राणों से भी अधिक प्यारी हो और मैं भी तुम्हें प्राणों से बढ़कर प्यारा हूँ। हम दोनों का कुछ भी एक-दूसरे से भिन्न नहीं है। हम सदैव एकरूप हैं। भूतल का भार उतारकर तुम्हारे और गोप-गोपियों के साथ मेरा पुन: गोलोक में आगमन होगा।’
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यह सुनकर श्रीराधा प्रेम से विह्वल होकर रो पड़ीं और श्रीकृष्ण से कहने लगीं – ‘मायापते ! यदि आप भूतल पर मुझे भेजकर माया से आच्छन्न कर देना चाहते हो तो मेरे समक्ष सच्ची प्रतिज्ञा करो कि मेरा मनरूपी मधुप तुम्हारे मकरन्दरूप चरणारविन्द में ही नित्य-निरन्तर भ्रमण करता रहे। जहां-जहां जिस योनि में भी मेरा यह जन्म हो, वहां-वहां आप मुझे अपना स्मरण एवं दास्यभाव प्रदान करोगे। जैसे शरीर छाया के साथ और प्राण शरीर के साथ रहते हैं, उसी प्रकार हम दोनों का जन्म और जीवन एक-दूसरे के साथ बीते। मैं तुम्हारी मुरली को ही अपना शरीर मानती हूँ और मेरा मन तुम्हारे चरणों से कभी विलग नहीं होता है। अत: विरह की बात कान में पड़ते ही आँखों का पलक गिरना बंद हो गया है और हम दोनों आत्माओं के मन, प्राण निरन्तर दग्ध हो रहे हैं।’
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भगवान श्रीकृष्ण ने कहा – ‘राधे ! सारा ब्रह्माण्ड आधार और आधेय के रूप में विभक्त है। इनमें भी आधार से पृथक् आधेय की सत्ता संभव नहीं है। मेरी आधार स्वरूपा तुम हो; क्योंकि मैं सदा तुम में ही स्थित रहता हूँ। हम दोनों में कहीं भेद नहीं है; जहां आत्मा है, वहां शरीर है। मेरे बिना तुम निर्जीव हो और तुम्हारे बिना मैं अदृश्य हूँ। तुम्हारे बिना मैं संसार की सृष्टि नहीं कर सकता, ठीक उसी तरह जैसे कुम्हार मिट्टी के बिना घड़ा नहीं बना सकता और सुनार सोने के बिना आभूषण नहीं बना सकता। अत: आंसू बहाना छोड़ो और निर्भीक भाव से गोप-गोपियों के समुदाय के साथ बृषभानु के घर पधारो। मैं मथुरापुरी में वसुदेव के घर आऊंगा। फिर कंस के भय का बहाना बनाकर गोकुल में तुम्हारे समीप आ जाऊंगा।’
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श्रीगर्ग संहिता के अनुसार श्रीराधा ने श्रीकृष्ण से कहा – ‘प्रभो ! जहां वृन्दावन नहीं है, यमुना नदी नहीं हैं और गोवर्धन पर्वत भी नहीं है, वहां मेरे मन को सुख नहीं मिलता।’ श्रीराधिकाजी के इस प्रकार कहने पर भगवान श्रीकृष्ण ने अपने गोलोकधाम से चौरासी कोस भूमि, गोवर्धन पर्वत एवं यमुना नदी को भूतल पर भेजा। विरह-ज्वर से कातर हुई श्रीराधा के नेत्रों में आंसू भरे हुए थे। वे अत्यन्त दीन और भय से व्याकुल दिखाई दे रहीं थीं। तब श्रीराधा भगवान श्रीकृष्ण की सात बार परिक्रमा और सात बार प्रणाम करके गोप-गोपियों के समूहों के साथ भूतल पर अवतरित हुईं। श्रीराधा की प्रिय सखियां व श्रीकृष्ण के प्रिय गोप बहुत बड़ी संख्या में क्रीडा के लिए व्रज में गोपों के घर उत्पन्न हुए।
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यह सब श्रीराधा और श्रीकृष्ण की लीला ही है, जो व्रज में परम दिव्य प्रेम की रसधारा बहाने के लिए निमित्तरूप से की गयी थी। इसी कारण से लीलामय श्रीकृष्ण और श्रीराधा वाराहकल्प में पृथ्वी पर अवतीर्ण हुए।
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**श्रीराधा का प्राकट्य**
शक्तिमान के साथ शक्ति का नित्य अभिन्न सम्बन्ध रहता है। द्वापर के अंत में जब भगवान श्रीकृष्ण का व्रज में आविर्भाव हुआ, तब गोपराज श्रीवृषभानु और कीर्तिदारानी के घर श्रीराधा का प्राकट्य हुआ। श्रीवृषभानु और कीर्तिदा पूर्वजन्म में राजा सुचन्द्र तथा रानी कलावती के नाम से प्रसिद्ध थे। इन दोनों ने दीर्घकाल तक तप करके ब्रह्माजी से यह वरदान प्राप्त किया था कि ‘द्वापर के अंत में स्वयं श्रीराधा तुम दोनों की पुत्री होंगी।’
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भाद्रपद शुक्ल अष्टमी चन्द्रवार(सोमवार) को मध्याह्न के समय अनुराधा नक्षत्र में श्रीराधा का प्राकट्य कालिन्दीतट पर स्थित रावल ग्राम में ननिहाल में हुआ। प्राकट्य के समय अकस्मात् प्रसूतिगृह में एक ऐसी दिव्य ज्योति फैली कि जिसके तेज से अपने-आप ही सबकी आंखें मुँद गईं। इसी समय ऐसा भान हुआ कि कीर्तिदाजी के प्रसव हुआ है। पर प्रसव में केवल हवा निकली और जब कीर्तिदा तथा पास में उपस्थित गोपांगनाओं के नेत्र खुले, तब उनको वायु में कम्पन-सा दिखाई दिया और उसमें सहसा एक परम दिव्य लावण्यमयी बालिका प्रकट हो गयी। रानी कीर्तिदा ने यही समझा कि इस बालिका का जन्म मेरे ही उदर से हुआ है। उस कन्या का रूप मन को हरने वाला था। उन्होंने मंगलविधान कराके पुत्री के कल्याण की कामना से दो लाख गायों के दान का संकल्प किया।
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राधिकाजी के पृथ्वी पर प्रकट होने पर नदियां स्वच्छ हो गयीं। सम्पूर्ण दिशाओं में आनन्द फैल गया। कमल की गन्ध से युक्त वायु बहने लगी। आकाश से देवतागणों ने नन्दनवन के इतने सुगन्धित और सुकोमल पुष्पों की वर्षा की कि चारों ओर ढेर-के-ढेर पुष्प स्वयं ही सुन्दर ढंग से सुसज्जित हो गये। भगवान श्रीकृष्ण के प्राकट्य के समय जो आनन्द की रसधारा बही थी, वही आनन्द-रस आज हृदयेश्वरी श्रीराधा के प्राकट्य पर समुद्र बनकर उमड़ने लगा।
नन्द-यशोदा के घर प्रकट हुए थे जब राधाप्रिय श्याम।
हुई प्रवाहित थी तब रस-आनन्द-सुधा-सरिता अभिराम॥
आज श्याम की हृदयवल्लभा प्रकट हुईं जब रावल-ग्राम।
उमड़ चला वह रस सागर बन प्लावित कर सब दिशा ललाम॥
(श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दार)
सभी दिशाओं में जयघोष होने लगा। श्रृंगी, गर्ग और दुर्वासा आदि मुनि पहले से ही पधारे हुए थे। उन्होंने उस बालिका के ग्रह-नक्षत्र देखकर कुण्डली बनाई। देवर्षि नारद भी आनन्दरसमयी श्रीराधिका के दर्शन के लिए आये। देवताओं को भी जिनका दर्शन मिलना कठिन है, वे ही राधिकाजी गोपराज वृषभानु के यहां स्वयं प्रकट हुईं।
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**श्रीनारदजी द्वारा राधा के अद्भुत स्वरूप का दर्शन और स्तवन**
देवर्षि नारद यह जानकर कि श्रीकृष्ण का प्राकट्य हो हो चुका है, वीणा बजाते हुए गोकुल में नन्दजी के यहां पहुंचे। वहां जाकर उन्होंने देखा कि योगमाया के स्वामी भगवान श्रीकृष्ण बालक का रूप धारण करके सोने के पलंग पर, जिस पर कोमल श्वेत वस्त्र बिछे थे, सो रहे हैं और गोपबालिकाएं आनन्दमग्न हो लगातार उन्हें निहार रही थीं। भगवान का शरीर अत्यन्त सुकुमार था; जैसे वे भोले थे, वैसी ही उनकी चितवन भी बड़ी भोली-भाली थी। उनके काले-काले घुंघराले बाल मुख पर बिखरे हुए थे। बीच-बीच में मुसकराहट के कारण उनके दो-एक दांत दिखाई दे जाते थे। उन्हें नग्न बालरूप में देखकर नारदजी को बहुत ही हर्ष हुआ। उन्होंने नन्दजी से कहा – ‘तुम्हारे पुत्र के अतुलनीय प्रभाव को इस जगत में कोई नहीं जानता। शिव, ब्रह्मा आदि देवता भी इस विचित्र बालक में अनुराग रखना चाहते हैं। इसका चरित्र सभी के लिए आनन्ददायी है। अत: तुम परलोक की चिन्ता छोड़ दो और अनन्यभाव से इस दिव्य बालक में प्रेम करो।’
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यह कहकर नारदजी नन्दभवन से निकलकर मन-ही-मन सोचने लगे – ‘जब भगवान का अवतार हो चुका है तो उनकी प्रियतमा भी भगवान की क्रीडा के लिए गोपी रूप धारणकर निश्चय ही प्रकट हुई होंगी, इसमें कोई सन्देह नहीं है। अत: व्रजवासियों के घरों में उन्हें खोजना चाहिए।’
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इसके बाद नारदजी नन्दबाबा के मित्र गोपश्रेष्ठ वृषभानुजी के घर गये और उनसे पूछा कि क्या उन्हें कोई पुत्र या पुत्री पैदा हुई है। पहले तो वृषभानुजी अपने पुत्र को लेकर आए। उसे देखकर नारदजी ने कहा – ‘तुम्हारा यह पुत्र बलराम और श्रीकृष्ण का श्रेष्ठ सखा होगा।’ फिर अपनी कन्या श्रीकृष्णात्मा, नित्य-श्रीकृष्णवल्लभा श्रीराधा का दर्शन कराने के लिए देवर्षि नारद को गोपश्रेष्ठ वृषभानु घर के भीतर ले गये। वहां पृथ्वी पर सोयी हुई जगज्जननी, सौन्दर्य की प्रतिमा नवजात कन्या को देखकर नारदजी मुग्ध हो गए और मन में विचार करने लगे – मैंने समस्त लोकों में भ्रमण किया पर इसके समान अलौकिक सौन्दर्यमयी कन्या कहीं भी नहीं देखी। भगवती पार्वती को भी मैंने देखा है, वह भी इसकी शोभा को नहीं पा सकतीं। इस कन्या के दर्शनमात्र से श्रीकृष्ण के चरणकमलों में मेरे प्रेम की जैसी वृद्धि हुई है, वैसी इसके पहले कभी नहीं हुई थी। इसका रूप श्रीकृष्ण को अत्यन्त आनन्द प्रदान करने वाला होगा। अत: मैं एकान्त में इनकी स्तुति करूंगा।
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वृषभानुजी को किसी कार्य से बाहर भेजकर नारदजी ने बालिका को गोद में उठा लिया और उसकी स्तुति करने लगे–
‘देवि ! तुम माया की अधीश्वरी, महान तेज का पुंज और महान माधुर्य की वर्षा करने वाली हो। तुम्हारा हृदय अद्भुत रसानन्द से पूर्ण रहता है। मेरे किसी महान सौभाग्य से आज तुम मेरे नेत्रों के सामने प्रकट हुई हो। सृष्टि, स्थिति और संहार तुम्हारे ही स्वरूप हैं। बड़े-बड़े योगीश्वरों के ध्यान में भी तुम कभी नहीं आतीं। तुम्हीं सबकी अधीश्वरी हो। इच्छाशक्ति, ज्ञानशक्ति और क्रियाशक्ति–ये सब तुम्हारे ही अंशमात्र हैं। भगवान श्रीकृष्ण वृन्दावन में तुम्हारे साथ ही क्रीडा करते हैं। कुमारावस्था में ही तुम अपने सुन्दर रूप से विश्व को मुग्ध कर रही हो। न जाने यौवन का स्पर्श होने पर तुम्हारा रूपलावण्य कैसा विलक्षण होगा। तुम्हारा जो स्वरूप भगवान श्रीकृष्ण को परम प्रिय है, मैं उसका दर्शन करना चाहता हूँ। अत: हरिवल्लभे ! दया करके इस समय अपना वह मनोहर रूप प्रकट करो, जिसे देखकर नन्दनन्दन श्रीकृष्ण भी मोहित हो जायेंगे।’
मन्मथ-मन्मथ मन मथत जाके सुषमित अंग।
मुख-पंकज-मकरंद नित पियत स्याम दृग भृंग॥
जाके अंग-सुगंध कौं नित नासा ललचात।
तन-चाहत नित परसिबौ जाकौ मधुमय गात॥
(श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दार)
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ऐसा कहकर नारदजी श्रीकृष्ण का ध्यान करके उनके गुणों का गान करने लगे – ‘भक्तों के चित्त को चुराने वाले श्रीकृष्ण ! वृन्दावन के प्रेमी गोविन्द ! बांकी भौंहों वाले, वंशीबजैया, मोरमुकुट धारण करने वाले गोपीमोहन ! अपने किशोरस्वरूप से भक्तों के मन को चुराने वाले चित्त के चुरैया ! वह दिन कब आयेगा जब मैं तुम्हारी ही कृपा से तुम्हें तरुणावस्था की मनोहर शोभा से युक्त इस दिव्य बालिका के साथ देखूंगा।’
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नारदजी जब इस प्रकार स्तुति कर रहे थे तब उस वृषभानुसुता ने चौदहवर्षीय परम लावण्यमयी बालिका का रूप धारण कर लिया। तत्काल ही उन्हीं के समान अवस्था व दिव्य वस्त्राभूषणों से सुसज्जित दूसरी व्रजबालाएं भी वहां आ पहुँची और वृषभानुसुता को चारों ओर से घेर कर खड़ी हो गयीं। यह दृश्य देखकर नारदजी निश्चेष्ट से हो गये तब उन सखियों ने दिव्य बालिका के चरणोदक का छींटा नारदजी को दिया और कहने लगीं –
‘देवर्षि ! ब्रह्मा, रूद्र आदि देवता, सिद्ध, मुनि और भगवतद्भक्तों के लिए भी जिसे देखना व जानना कठिन है, वही अपनी अद्भुत अवस्था और रूप से सबको मोहित करने वाली श्रीकृष्णप्रियतमा हमारी सखी आज तुम्हारे समक्ष प्रकट हुईं हैं। यह निश्चय ही तुम्हारे किसी अचिन्त्य सौभाग्य का प्रभाव है। शीघ्र ही इनकी प्रदक्षिणा कर प्रणाम करो, यह इसी क्षण अन्तर्ध्यान हो जायेंगी।’
राधा ने दे दर्शन सुर-ऋषि को कृपया कर दिया निहाल।
करने लगे स्तवन गद्गद हो प्रेमपूर्ण-दृग मुनि तत्काल॥
महायोगमयि मायाधीश्वरि तेजपुंज जननी जय-जय।
माधुर्यामृतवर्षिणी कृष्णाकर्षिणी कृष्णात्मा जय-जय॥
(श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दार)
प्रेमविह्वल नारदजी ने बालिका की प्रदक्षिणा कर साष्टांग प्रणाम किया और फिर गोपश्रेष्ठ वृषभानु को बुलाकर कहा – ‘तुम्हारी इस कन्या का स्वरूप और स्वभाव दिव्य है। देवता भी इसका महत्व नहीं जान सकते। जिस घर में इसका चरणचिह्न है, वहां साक्षात् भगवान नारायण निवास करते हैं। समस्त सिद्धियों सहित लक्ष्मी भी वहां रहती है। अब से तुम सम्पूर्ण आभूषणों से भूषित इस सुन्दरी कन्या की परादेवी की भांति यत्नपूर्वक अपने घर में रक्षा करो।’ ऐसा कहकर नारदजी हरिगुण गाते चले गये।
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**गर्गमुनि द्वारा श्रीवृषभानुजी को श्रीराधा का परिचय देना**
एक दिन महामुनि गर्गाचार्य श्रीकृष्ण व बलरामजी का नामकरण संस्कार करने के बाद यमुनातट पर स्थित राजा वृषभानु की पुरी में पधारे। वे छत्र धारण करने से दूसरे इन्द्र, दण्ड धारण करने से साक्षात् धर्मराज, प्रचण्ड तेजराशि होने से सूर्य और पुस्तक व मेखला से युक्त होने से दूसरे ब्रह्मा की तरह प्रतीत हो रहे थे। वे वेदों और ज्योतिर्विद्या के पारंगत थे। गोरे-गोरे अंग और कमल जैसे नेत्र वाले वे भगवान शंकर के शिष्य थे। उन्हें देखकर ऐसा जान पड़ता था कि मानो चारों वेदों का तेज मूर्तिमान हो गया हो। उन्हें जीवनमुक्त अवस्था प्राप्त थी। वे सिद्धों के स्वामी, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी थे।
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मुनि का पूजन आदि करने के बाद वृषभानुजी ने गर्गमुनि से कहा – ‘गृहस्थजनों के घर संतजनों का आगमन परम शान्ति देने वाला है। मनुष्यों के भीतरी अन्धकार का नाश महात्माजन ही करते हैं, सूर्य नहीं। आपका दर्शन पाकर हम सब गोप पवित्र हो गये हैं। मेरे यहां एक कन्या हुई है, जो मंगल की धाम है और जिसका नाम ‘राधिका’ है। आप अच्छे से विचारकर यह बताने की कृपा करें कि इसका शुभ विवाह किसके साथ किया जाए।’
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यह सुनकर गर्गमुनि गोपेश्वर वृषभानु को यमुनातट पर एक निर्जन स्थान पर ले गये और उनसे कहने लगे – ‘एक गुप्त बात है जो तुम्हें किसी से नहीं कहनी चाहिए। असंख्य ब्रह्माण्डों के स्वामी, गोलोकबिहारी, परिपूर्णतम भगवान श्रीकृष्ण नन्दगोप के घर प्रकट हुए हैं। उन्हीं परम प्रभु श्रीकृष्ण की पटरानी, जो प्रिया श्रीराधिकाजी गोलोकधाम में विराजती हैं, वे ही तुम्हारे घर पुत्री रूप से प्रकट हुईं हैं।’
यह सुनते ही वृषभानुजी के आनन्द की सीमा न रही। उन्होंने कलावती(कीर्तिकुमारी) को बुलाकर उनके साथ विचार किया और फिर उन्होंने गर्गमुनि से कहा – ‘उन्हीं भगवान श्रीकृष्ण को मैं अपनी यह कमलनयनी कन्या समर्पण करूंगा। आपने ही मुझे यह सन्मार्ग दिखाया है, अत: आपके द्वारा ही श्रीकृष्ण के साथ इसका विवाह-संस्कार सम्पन्न होना चाहिए।’
तब गर्गमुनि ने कहा – ‘वृन्दावन के निकट यमुना के तट पर भाण्डीरवन के निर्जन व सुरम्य स्थान पर श्रीब्रह्माजी ही स्वयं इन दोनों का विवाह करायेंगे। ये राधिका भगवान श्रीकृष्ण की वल्लभा हैं। समस्त लोकों में सर्वश्रेष्ठ गोलोकधाम से ही तुम सब गोप इस भूमण्डल पर आए हो; वैसे ही श्रीराधा की आज्ञा से समस्त गोपियां गोलोक से आयीं हैं। बड़े-बड़े देवताओं को भी जिनका दर्शन सुलभ नहीं है, वही साक्षात् तुम्हारे आंगन में गुप्तरूप से विराज रहीं हैं।’ ‘राधा’ शब्द की तात्त्विक व्याख्या तब राजा वृषभानु ने गर्गमुनि से ‘राधा’ शब्द की तात्त्विक व्याख्या बताने को कहा। गर्गजी ने वृषभानुजी को सामवेद में दी गयी ‘राधा’ शब्द की तात्त्विक व्याख्या इस प्रकार बतलाई–
‘रकार’ से रमा का, ‘आकार’ से गोपिकाओं का, ‘धकार’ से धरा का तथा ‘आकार’ से विरजा नदी का ग्रहण होता है। भगवान श्रीकृष्ण का तेज चार रूपों में विभक्त हुआ। लीला, भू, श्री और विरजा–ये चार पत्नियां ही उनका चतुर्विध तेज हैं। ये सब-की-सब निकुंज में जाकर श्रीराधिका के श्रीविग्रह में लीन हो गईं। इसीलिए श्रीराधा को ‘परिपूर्णतमा’ कहते हैं। जो मनुष्य ‘राधाकृष्ण’ के इस नाम का उच्चारण करते हैं, उन्हें चारों पदार्थ तो क्या, साक्षात श्रीकृष्ण भी सुलभ हो जाते हैं।
लाखों बार तपाये उज्जवल शुद्ध स्वर्ण सम जिनका प्रेम।
चन्द्र-चकोर मेघ-चातक सम नित्य परस्पर जिनके नेम॥
परमानन्दधाम जो दोनों, महाभाव-रसराज अनूप।
शुचि सौन्दर्य असीम सिन्धु, माधुर्य नित्य चिन्मय सद्-रूप॥
उन राधा-माधव की छवि मैं निरखूँ दिव्य मधुर सब ओर।
उनकी चरण-धूलि-रति तजकर चाहूँ नहीं कभी कुछ और॥
सुनूँ न कुछ भी कहीं और कुछ नहीं उचारूँ मुख से अन्य।
राधेश्याम-नाम-गुण में ही लगा रहे मन सदा अनन्य॥
(श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दार)
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**श्रीराधा-कृष्ण की अभिन्नता**
स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने नन्दबाबा से कहा – ‘जैसे दूध में धवलता होती है। दूध और धवलता में कभी भेद नहीं होता। जैसे जल में शीतलता, अग्नि में दाहिका शक्ति, आकाश में शब्द, भूमि में गन्ध, चन्द्रमा में शोभा, सूर्य में प्रभा और जीव में आत्मा है; उसी प्रकार राधा के साथ मुझको अभिन्न समझो। तुम राधा को साधारण गोपी और मुझे अपना पुत्र न जानो। मैं सबका उत्पादक परमेश्वर हूँ और राधा ईश्वरी प्रकृति है।
जुगलबर एक तत्त्व, दो रूप।
पुतरी-नयन-तरंग-तोय-सम, भिन्न न भिन्न-स्वरूप॥
सुभ्र चंद्रिका-चंद्र, दाहिकासक्ति-अनल सम एक।
अति उदार बितरत स्वरूप-रस सहज, निभावत टेक॥
(श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दार)
अर्थात–जिस प्रकार नेत्र और पुतली, जल और उसकी लहर, चन्द्रमा और उसकी चांदनी, अग्नि और उसकी ज्वाला–रूप और उसका नाम भिन्न-भिन्न होते हुए भी यथार्थ में एक ही हैं। उसी प्रकार राधा तथा कृष्ण भी अभिन्न हैं।
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श्रीकृष्ण पूर्ण ब्रह्म हैं, राधा उनकी ज्योति हैं। ब्रह्म का प्रकाशमण्डल राधा हैं। कृष्ण सोम(शीतलता) हैं, राधा ज्योतिर्मयी अग्नि हैं। दोनों-के-दोनों नित्य जुड़े हैं। कृष्ण ब्रह्माण्ड रचियता हैं तो राधा उनकी ऊर्जा है। राधा-कृष्ण रूप में ही समस्त ब्रह्माण्ड व्याप्त हो रहा है। कृष्ण आनन्दमय तत्व हैं, सच्चिदानन्द हैं। इसमें ज्ञानमयी ज्योति राधा है। श्रीकृष्ण लीलाधर हैं तो राधा उनकी लीला हैं। राधा के बिना श्रीकृष्ण अपूर्ण हैं। कृष्ण चन्दन हैं तो राधा उसकी सौरभ हैं। कृष्ण श्यामघन हैं तो राधा सौदामिनी हैं। श्यामसुन्दर प्रेमसिन्धु हैं तो श्यामा मधुर लहर हैं। कृष्ण वाणी हैं तो श्रीराधा उसका अर्थ हैं। श्रीवल्लभाचार्यजी ने श्रीकृष्ण को ब्रह्म(स्वामी) तथा राधा को ज्योति(स्वामिनी) के रूप में कहा है। श्रीश्रीनाथजी का स्वरूप बाह्य रूप से कृष्ण है किन्तु उनके हृदयसरोज में श्रीराधिका ही हैं। इस प्रकार वे दोनों नित्य एकस्वरूप हैं, पर लीला के आस्वादन के लिए उनके दो रूप हैं। कृष्ण-राधा एक प्राण, किन्तु दो शरीर हैं। व्रज के रसिक संतों के अनुसार श्रीकृष्ण नवकिशोर है तो श्रीराधा नित्यकिशोरी। श्रीकृष्ण रसिक शिरोमणि हैं तो राधा प्रेम-रसदात्री हैं। राधा श्रीकृष्ण की आत्मा हैं तो कृष्ण उनके जीवनधन हैं।
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श्रीकृष्ण की समस्त चेष्टा राधा की प्रसन्नता हेतु हैं और राधा की अपूर्व निष्ठा श्रीकृष्ण की प्रसन्नता का प्राण है। भक्तमण्डली में भी कृष्ण का बोध राधा से होता है। भक्तजन कृष्ण की आराधना राधा सहित करते हैं। भक्तजन गाते हैं–
राधाकृष्ण बोल मनवा तेरो क्या लगेगो मोल।
‘धन’ श्रीकृष्ण के जीवन (प्राण) का आधार परम धन राधा हैं। जिस प्रकार मकान का रक्षक आधार (नींव) होता है, ऐसे ही कृष्ण का आधार–प्राणों का स्तम्भ राधा-नाम है, जिसे वे मुरली में स्मरण करते हैं।
परम धन राधा नाम आधार।
जाहि पिया मुरली में टेरत सुमरत बारंबार॥
वेद मंत्र और जंत्र तंत्र में ये ही कियो निरधार।
श्रीशुक प्रगट कियो नहीं तातें जान सार को सार॥
कोटिन रूप धरे नंदनंदन तोऊ न पायो पार।
‘व्यासदास’ अब प्रगट बखानत डार भार में भार॥
श्रीराधा शुकदेवजी की इष्ट हैं, यदि वे राधा का नाम प्रकटरूप से लेते तो उन्हें समाधि लग जाती, फिर राजा परीक्षित को भागवतरस का दान कैसे होता? और कैसे उनकी मुक्ति होती? अत: शुकदेवजी ने भागवत में प्रकट रूप से राधा नाम नहीं लिया। जहां श्रीकृष्ण की सत्ता है, वहां श्रीराधिका की भी है। इस प्रकार राधा के चिन्तन द्वारा ही श्रीकृष्ण का चिन्तन किया जा सकता है। श्रीराधा की पूजा न की जाए तो मनुष्य श्रीकृष्ण की पूजा का अधिकार नहीं रखता। अत: समस्त वैष्णवों को श्रीराधा की आराधना अवश्य करनी चाहिए। श्रीराधा के बिना भगवान श्रीकृष्ण क्षण भर भी नहीं ठहर सकते।
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राधाजू के प्राण श्रीगोवर्धन धारी।
तरु तमाल ढिग कनक लता-सी हरि जू के प्राण राधिका प्यारी॥
मरकत मणी नंदलाल लाडिले कंचन तन वृषभान दुलारी।
‘सूरदास’ प्रभु प्रीति निरन्तर जोरी युगल बने बनवारी॥
कई जन्मों तक श्रीकृष्ण की सेवा से उनके लोक की प्राप्ति होती है, किन्तु उनके प्राणों की अधिष्ठात्री देवी श्रीराधा की कृपा से साधक उनके धाम को शीघ्र ही प्राप्त कर लेता है। एक बार भगवान श्रीकृष्ण ने भगवान शंकर से कहा – ‘जो दूसरे उपायों का भरोसा छोड़कर एक बार हम दोनों की शरण में आ जाता है अथवा अकेली मेरी प्रिया श्रीराधा की ही अनन्यभाव से उपासना करता है, वह मुझे अवश्य प्राप्त होता है।’
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त्वं देवी जगतां माता विष्णुमाया सनातनी।
कृष्णप्राणाधिदेवी च कृष्णप्राणाधिका शुभा॥
कृष्णप्रेममयी शक्ति: कृष्णसौभाग्यरूपिणी।
कृष्णभक्तिप्रदे राधे नमस्ते मंगलप्रदे॥
अर्थात् – श्रीराधे ! तुम देवी हो। जगज्जननी सनातनी विष्णुमाया हो। श्रीकृष्ण के प्राणों की अधिष्ठात्री देवी तथा उन्हें प्राणों से भी अधिक प्यारी हो। शुभस्वरूपा हो। कृष्ण प्रेममयी शक्ति तथा श्रीकृष्ण सौभाग्यरूपिणी हो। श्रीकृष्ण की भक्ति प्रदान करने वाली मंगलमयी राधे तुम्हें नमस्कार है।
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