











*ज्यों रचिया त्यों होइगा, काहे को सिर लेह ।*
*साहिब ऊपरि राखिये, देख तमाशा येह ॥*
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साभार ~ oshoganga
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आयासात्सकलो दुःखीनैनं जानाति कश्चन।
अनेनैवोपदेशेन धन्यःप्राप्नोति निर्वृतिम्॥
(अष्टावक्र: महागीता)
भावार्थ: प्रयत्न से ही सभी दुखी हैं पर कोई इसे जानता नहीं है। इस निष्पाप उपदेश से ही भाग्यवान व्यक्ति सभी वृत्तियों से रहित हो जाते हैं।
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अष्टावक्र कहते हैं जनक से कि, हे जनक, प्रयास से सब लोग दुखी हैं, इसको कोई नहीं जानता, इसी उपदेश से भाग्यवान निर्वाण को प्राप्त होते हैं। हमारी चेष्टा के कारण हम दुखी हैं। इसलिए हमारी चेष्टा से तो हम कभी सुखी न हो सकेंगे। हमारी चेष्टा यानी हमारा अहंकार। हमारी चेष्टा यानी हमारा यह दावा कि मैं यह करके दिखा दूंगा, धन कमा लूंगा, पद कमा लूंगा, समाधि लगा लूंगा, परमात्मा को भी मुट्ठी में ले कर दिखा दूंगा, हमारी चेष्टा यानी हमारे अहंकार की घोषणा कि "मैं कर्ता हूं"।
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**आयासत्सकलो दुःखी नैनं जानाति कश्चन।**
आयास से, प्रयास से, चेष्टा से दुख पैदा हो रहा है, इसे बहुत कम ही, कोई विरला जानता हो। जो जान लेता है वह धन्यभागी है।
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**अनेनैवोपदेशेन धन्य:।**
जो ऐसा जान ले, इस उपदेश को पहचान ले, वह धन्यभागी है, वह भाग्यशाली है। क्योंकि निर्वाण उसका है। फिर उसे कोई निर्वाण से रोक नहीं सकता।
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इसका अर्थ समझो। निर्वाण का अर्थ है, सहज समाधि। निर्वाण का अर्थ है, जो समाधि अपने से लग जाये, हमारे लगाने से नहीं, जो प्रसाद रूप मिले, प्रयास-रूप नहीं। हम जो भी कमा लाएंगे वह हमसे छोटा होगा। कृत्य कर्ता से बड़ा नहीं हो सकता। हमने यदि कविता लिखी तो हमसे छोटी होगी, कविता कवि से बड़ी नहीं हो सकती। और हमने यदि चित्र बनाया है, तो हमसे छोटा होगा, चित्र चित्रकार से बड़ा नहीं हो सकता। हम यदि नाचे तो हमारा नृत्य हमारी सीमा से छोटा होगा, क्योंकि नृत्य नर्तक से बड़ा नहीं हो सकता। तो हमारी समाधि, हमारी ही समाधि होगी, विराट नहीं हो सकती। हम क्षुद्र हो, हमारी समाधि हमसे भी ज्यादा क्षुद्र होगी। विराट को बुलाना हो तो चेष्टा से नहीं, समर्पण से, प्रयास से नहीं, सब उसके, अनंत के चरणों में छोड़ देने से।
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अष्टावक्र का मार्ग संकल्प का मार्ग नहीं है। अष्टावक्र का मार्ग है समर्पण का। अष्टावक्र कहते हैं, तुम जरा कर्ता न रहो तो परमात्मा अभी कर दे। तुम जरा हटो तो परमात्मा अभी कर दे। तुम बीच-बीच में न आओ तो अभी हो जाये। तुम्हारे आने से बाधा पड़ रही है।
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तुम्हारी चेष्टा तुम्हें तनाव से भर देती है, अशांत कर देती है। स्वीकार कर लो, जो है, उसे वैसा ही स्वीकार कर लो। तुम समस्त के साथ संघर्ष न करो, बहने लगो इस धार में। और नदी जहां ले जाये, वहीं चल पड़ो। नदी से विपरीत मत चलो, उल्टे जाने की चेष्टा मत करो। उसी उल्टे जाने में अशांति पैदा होती है। उसी लड़ने में तुम हारते, पराजित होते, विषाद उत्पन्न होता है और चित्त में संताप घिरता है। प्रयास से सब लोग दुखी हैं, इसको कोई नहीं जानता। इसी उपदेश से भाग्यवान निर्वाण को प्राप्त होते हैं।
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**आयासात् सकला दुःखी।**
सब दुखी हैं प्रयास के कारण। यह बड़ी अनूठी बात है। तुम तो सोचते हो, हम प्रयास पूरा नहीं कर रहे हैं, इसलिए दुखी हैं, चेष्टा पूरी नहीं हो रही, नहीं तो सफल हो जाते। जो पूरी चेष्टा करते हैं, वे सफल हो जाते हैं। जो दौड़ते हैं, वे पहुंच जाते हैं।
अष्टावक्र कह रहे हैं, आयासात् सकला दुःखी। सब दुखी हैं प्रयास के कारण। दौड़े कि भटके। रुक जाओ तो पहुंच जाओ।
**एनं कश्चन न जानाति।**
इस अद्भुत वचन को कोई भी जानता हुआ नहीं प्रतीत होता।
**अनेन एव उपदेशेन धन्य निवृत्तिम्।**
और इसे जान ले, वह धन्यभागी है। वह निवृत्त हो गया। उसे प्राप्ति हो जाती है।
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