शुक्रवार, 8 जून 2018

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卐 सत्यराम सा 卐
*राता माता राम का, मतवाला मैमंत ।*
*दादू पीवत क्यों रहै, जे जुग जांहि अनन्त ॥* 
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॥ सन्तवाणी ॥
–श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज 

*बिन्दु में सिन्धु*

श्रोता ‒ परमात्मतत्त्व सबको प्राप्त है और हमारा स्वरूप परमात्मस्वरूप है, इसका ज्ञान हो जानेके बाद क्या भजन की, भक्ति की आवश्यकता नहीं रहती ?
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स्वामीजी ‒ अपने को दो-चार रत्न मिल जायँ तो क्या फिर धन नहीं कमाते ? क्या लखपति, करोड़पति अथवा अरबपति धन नहीं कमाते ? क्या वे धन कमाना छोड़ देते हैं ? क्या भगवान् नाशवान् धन से भी रद्दी हैं ? क्या धन मिलने पर हम जीना छोड़ देते हैं ? आपने भगवान्‌ को समझा नहीं, तभी ऐसा प्रश्न पैदा होता है । भगवान् तो प्राणोंसे भी प्यारे हैं, वे छोड़े कैसे जायँ ? चाहे हमारी मुक्ति हो जाय, कोई कामना नहीं रहे, तो भी हम भजन करेंगे । भजन तो भगवान्‌ का प्यार है, उसको कैसे छोड़ेंगे ? भगवान् शंकर को मुक्ति करनी है या तत्त्वज्ञान करना है, क्या प्राप्त करना बाकी है ? पर वे भी दिन रात रामराम जपते हैं ‒
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तुम्ह पुनि राम राम दिन राती ।
सादर जपहु अनँग आराती ॥
(मानस, बाल॰ १०८ । ४)
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जीव भगवान्‌ का अंश है । अगर उसको भगवान् अच्छे, प्यारे लगने लग जायँ तो सब काम अपने-आप ठीक हो जायगा । एक भगवान्‌ का आकर्षण है और एक सांसारिक पदार्थों का आकर्षण है । भगवान्‌ का आकर्षण स्वाभाविक है, पर पदार्थों का आकर्षण हमारा बनाया हुआ है । हमने ही उनसे सम्बन्ध जोड़ा है । पदार्थों में खींचने की शक्ति नहीं है । परन्तु भगवान्‌ में खुद में आकर्षण है, इसलिये उनका नाम ‘कृष्ण’ है । पदार्थों में जो खिंचाव दीखता है, वह भी वास्तव में भगवान्‌ का ही है, पर हम उसको भगवान्‌ का न मानकर संसार का मान लेते हैं ।
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पदार्थोंमें आकर्षण अपने सुखके लिये होता है, पर भगवान्‌का आकर्षण भगवान्‌के लिये होता है । भगवान्‌की तरफ आकर्षण किसी भी तरहसे हो, वह कल्याण करनेवाला होता है । कंसका भयसे और और शिशुपालका द्वेषसे भगवान्‌में आकर्षण हुआ तो भी उनका कल्याण हो गया ।
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कामाद् द्वेषाद् भयात् स्नेहाद् यथा भक्त्येश्वरे मनः ।
आवेश्य तदघं हित्वा बहवस्तद्‌गतिं गताः ॥
(श्रीमद्भा॰ ७ । १ । २९)
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‘एक नहीं, अनेक मनुष्य काम से, द्वेष से, भय से और स्नेह से अपने मन को भगवान्‌ में लगाकर एवं अपने सारे पाप धोकर वैसे ही भगवान्‌ को प्राप्त हुए हैं, जैसे भक्त भक्ति से ।’
‒ ‘बिन्दुमें सिन्धु’ पुस्तक से

।। श्रीहरिः ।।

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