#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
*जीव जन्म जाणै नहीं, पलक पलक में होइ ।*
*चौरासी लख भोगवै, दादू लखै न कोइ ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi
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*पीव पिछाण का अंग ४७*
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यह सब बाजी नट्ट की, कर खेल्या षट् अंग ।
रज्जब मानी जगत जड़, सुन कहै पित भंग१ ॥२१॥
यह सब संसार ईश्वर रूप नट का खेल है, वह अपने चन्द्र, सुर्य, जल, वायु, पृथ्वी और आकाश इन छ: अंगो से खेल रहा है । जो कहते है कि परमात्मा पिता बनता है और नष्ट१ होता है, उस बात को सुन कर जगत् से अज्ञानी प्राणियों ने ही माना है, ज्ञानी नहीं मानते, कारण- न वह किसी का पिता बनता है और न नाश होता ।
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रज्जब षट् अंग खलक१ कन२, परि खालिक३ कहया न जाय ।
चन्द्र सूर्य पाणी पवन, धर४ अम्बर६ निरताय५ ॥२२॥
ईश्वर के छ: अंग चन्द्र सूर्य जल वायु पृथ्वी४ और आकाश६ संसार१ के पास२ हैं अर्थात संसार में ही हैं किन्तु विचार५पूर्वक उन्हें ईश्वर३ नहीं कहा जाता ।
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रज्जब जीव ज्योति मधि औतरै, जीवे माया माँहिं ।
बैठै ऊठै आतमा, हिले चले सो नाँहिं ॥२३॥
जैसे सूर्य का प्रतिबिम्ब जल पात्र में उतरता है और जल तब तक जल से हिलने से हिलता दिखाई देता है किन्तु बिम्ब सूर्य नहीं हिलता, वैसे ही जीव चेतन, ब्रह्म ज्योति से आता है और मायिक शरीर में जीवित रहता है, शरीर बैठता ऊठता है तब वह भी बैठता उठता दिखाई देता है किन्तु ब्रह्म तो कभी भी हिलता चलता नहीं, एक रस रहता है ।
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रज्जब माया ब्रह्म में, आतम ले अवतार ।
भूत भेद जाने नहीं, शिरदे सिरजन हार ॥२४॥
२३ की साखी के अनुसार जल के कारण प्रतिबिंब आता है, वैसे ही माया के कारण ब्रह्म से चेतन उतर कर जीवात्मा का जन्म होता है, इस रहस्य को अज्ञानी प्राणी नहीं जानते, इससे जीव के जन्मादि ईश्वर के शिर मढते हैं ।
(क्रमशः)
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