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卐 सत्यराम सा 卐
*कृत्रिम नहीं सो ब्रह्म है, घटै बधै नहिं जाइ ।*
*पूरण निश्चल एक रस, जगत न नाचे आइ ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi
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*पीव पिछाण का अंग ४७*
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सहगुण सब कुछ देखिये, निगुर्ण शून्य स्थान ।
रज्जब उभय अगम तत्त्व, समझो संत सुजान ॥२५॥
जो कुछ भी दिखाई दे रहा है वह सभी ईश्वर का सगुण रूप है और निर्गुण तो आकाश के समान रूप रहित होने से दीखता नहीं है, हे बुद्धिमान संतों ! तुम यथार्थ ही समझो अज्ञानी प्राणियों से ईश्वर के उक्त दोनों ही रूप अगम है ।
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ज्योति उदय तम नाश ह्वै, त्यों तम आये ज्योति ।
तो रज्जब क्यों वर्णिये, अकल सु इनके पोति१ ॥२६॥
ज्योति के उदय होने पर अंधेरा नष्ट हो जाता है और अंधेरा आने पर ज्योति नहीं रहती, तब उस कला-विभाग से रहित ब्रह्म का वर्णन इनके ढंग१ से कैसे करा जा सकता है ।
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तिमिर उजाले से परे, है कछु कह्या न जाय ।
रज्जब रीझ्या वस्तु तिहिं, जो नहिं शब्द समाय ॥२७॥
वह ब्रह्म रात्रि के अंधकार तथा सूर्यादि के प्रकाश से परे है, उसके विषय में कुछ भी नहीं बनता, जो शब्दों में नहीं समाता उस निर्गुण ब्रह्म रूप वस्तु में ही हम अनुरक्त हैं ।
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ओंकार यह आतमा, ब्रह्मांड रु पिंड प्रवेश ।
रज्जब चलि चहुं ठौर सौ, आगे अविगत देश ॥२८॥
यह ओंकार ईश्वर रूप से ब्रह्मांड में और जीवात्मा रूप से शरीर में प्रविष्ट है, ऊँ के - अ, उ, म्, अमात्रिक । ईश्वर के - विराट्, हिरण्यागर्भ, ईश्वर, ब्रह्म । आत्मा के - विश्व, तैजस, प्राज्ञ, तुरीय । इन चार पादरूप चारों स्थानों से आगे जाने पर मन इन्द्रियों का अविषय शुद्ध ब्रह्म रूप देश ज्ञात होता है ।
(क्रमशः)
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