卐 सत्यराम सा 卐
*तरुवर साखा मूल बिन, धर अंबर न्यारा ।*
*अविनाशी आनन्द फल, दादू का प्यारा ॥*
*काहु के संग मोह न ममता, संगी सिरजनहारा ।*
*मनही मन सौं समझ सयाना, आनन्द एक अपारा ॥*
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साभार ~ गजेन्द्र कौरव
*आनंद और सुख*
आनंद किसी से मिलता नहीं यह फर्क है, सुख किसी से मिलता है, आनंद किसी से मिलता नहीं है, भीतर से आता है, सुख सदा बाहर से आता है, सुख सदा किसी पर निर्भर होता है, आनंद सदा ही स्वतंत्र होता है, इसलिए सुख के लिए दूसरे का मोहताज होना पड़ता है, आनंद के लिए किसी का मोहताज होने की जरूरत नहीं है...
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अगर मुझे सुखी होना है, तो मुझे समाज में किसी के साथ होना पड़ेगा और अगर मुझे आनंदित होना है, तो मैं अकेला भी हो सकता हूं, अगर इस पृथ्वी पर मैं अकेला रह जाऊं और आप सब कहीं विदा हो जाएं, तो मैं सुखी तो नहीं हो सकता, आनंदित हो सकता हूं, लेकिन ध्यान रहे, जिनसे हमें सुख मिलता है, उनसे ही दुख मिलता है, जिसे आनंद मिलता है, उसे दुख का उपाय नहीं रह जाता ...
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एक बात अंतिम आप सोच न पाएंगे, मनुष्य की भाषा में सब भाषाओं के विपरीत शब्द हैं, आनंद के विपरीत कोई शब्द नहीं है, सुख का ठीक पैरेलल दुख खड़ा है सामने, प्रेम के पैरेलल समानांतर खड़ी है घृणा, दया के समानांतर खड़ी है क्रूरता, सबके समानांतर कोई खड़ा है, आनंद अकेला शब्द है, क्योंकि आनंद स्वनिर्भर है, द्वंद्व के बाहर है, अद्वैत है, सुख-दुख, प्रेम-घृणा, सब द्वंद्व के भीतर हैं, द्वैत हैं......
ओशो ~ गीता दर्शन–प्रवचन–042
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