#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
*जामै मरै सो जीव है, रमता राम न होइ ।*
*जामण मरण तैं रहित है, मेरा साहिब सोइ ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
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*पीव पिछाण का अंग ४७*
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एक कहै अवतार दश, एक कहै चौबीस ।
रज्जब सुमिरे सो धणी, जो सब ही के शीश ॥७७॥
एक दश अवतार कहता है तो दूसरा चौबीस कहता है, किन्तु हम तो उसी निरंजन स्वामी का स्मरण करते है जो सभी का शिरोमणी है ।
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अविचल अमर अलेख गति, सकल लोक शिरताज ।
जन रज्जब सो शिर धर्या, जा शिर और न राज ॥७८॥
जिसका स्वरूप अविचल, अमर और लेखबद्ध नहीं हो सकता, जो सभी लोकों का शिरोमुकुट है और जिसके शिरपर कोई शासन नहीं है, हमने तो उसी ब्रह्म को शिर पर धरा है ।
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चंद सूर पानी पवन,धरती अरू आकाश ।
जिन साहिब सब कुछ किया, रज्जब ताका दास ॥७९॥
जिन प्रभु ने आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, चन्द्रमा, सूर्यादि सब कुछ उत्पन्न किया है, मैं उन प्रभु का ही दास हूँ ।
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जा घर मांहिं असंख्य घर, अजों सु मुकती ठौर ।
रज्जब सेवक तिहिं सदन, जा समसरि नहिं और ॥८०॥
जिस ब्रह्म रूप घर में अनेक लोक रूप घर है और अब भी बहुत स्थान है, मैं उसी ब्रह्म रूप घर का सेवक हूँ, जिसके बराबर और कोई भी नहीं है ।
(क्रमशः)
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