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॥ श्री दादूदयालवे नमः ॥
स्वामी सुन्दरदासजी महाराज कृत - *सुन्दर पदावली*
साभार ~ महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य ~ श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*= ११. राग देवगन्धार =*
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(१)
*कब हूं असुर मनुष्य देह धरि, भू मंडल मैं आयौ ॥*
*कब हूं पशु पंषी पुनि जलचर, कीट पतंग दिषायौ ॥२॥*
कभी मैं असुरों तथा मनुष्यों की योनि में भूलोक में आकर इधर उधर विचरण करता रहा । कभी जलवासी प्राणी या कभी कीट एवं पतंग की योनि में पहुँच गया ॥२॥
*तीनौं गुन के कर्मनि करिकैं, नाना योनि भ्रमायौ ।*
*स्वर्ग मृत्यु पाताल लोक मैं, ऐसौ चक्र फिरायौ ॥३॥*
मैं सत्त्व रज तम - इन तीनों गुणों से युक्त कर्म करता हुआ अनेक योनियों में घूमता रहा । यहाँ तक कि मुझसे स्वर्ग, मृत्यु, पाताल - कोई लोक भी नहीं छूटा ॥३॥
*यह तौ स्वप्नौ है अनादि कौ, बचन जाल बिथरायौ ।*
*सुन्दर ज्ञान प्रकास भयौ जब, भ्रम संदेह बिलायौ ॥४॥*
मेरा यह स्वप्न काल तो अनादि काल से चला आ रहा है । इसके वर्णन में केवल वचनों का ही विस्तार होगा । तत्त्व कुछ नहीं मिलेगा ।
महाराज श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - जब मुझे गुरुपदेश ज्ञान का प्रकाश मिला तभी मेरा यह भ्रम या सन्देह विनष्ट हुआ ॥४॥
(क्रमशः)
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