#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
*दादू मैं दासी तिहिं दास की, जिहिं संगि खेलै पीव ।*
*बहुत भाँति कर वारणें, तापर दीजे जीव ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
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*पीव पिछाण का अंग ४७*
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पुकार लगे प्रकटे प्रभु, रजू१ भये तज रूठ२ ।
सो समसरि३ सब ठौर थे, आवण जाणाँ झूठ ॥७३॥
देवता तथा भक्तों के प्रार्थना करने पर रोष२ को त्याग, प्रसन्न१ होकर प्रकट हुये वे प्रभु पहले ही सभी स्थानों में समान३ रूप से थे, उनका आना जाना कथन करना मिथ्या ही है ।
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बाँध्या बाँधे को भजे, मुक्त होन की आश ।
सो रज्जब कैसे खुले, इहिं झूठे विश्वास ॥७४॥
बँधा हुआ व्यक्ति किसी अन्य बँधे हुये से आशा करे कि यह मुझे खोल देगा, तो वह इस मिथ्या विश्वास से कैसे खुलेगा ? वैसे ही अविद्या तथा कर्म जाल में बँधा जीव माया से बँधे हुये अवतार की उपासना से मुक्त नहीं हो सकता, माया से मुक्त ब्रह्म की उपासना से ही होगा ।
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रज्जब जो जामे१ मरे, ताका तजिये वास ।
हम हि अमर सो क्यों करे, आप फिर गर्भवास ॥७५॥
जो जन्मता१ है वो मरता है, उस सगुण के निवास स्थान की आशा छोड़ देनी चाहिये, वह स्वयं गर्भवास में आता है तब हमे अमर कैसे करेगा ।
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उधर्या कहिये जीव सो, जिहिं जामण मृत नाँहिं ।
तो रज्जब आवे ब्रह्म क्यों, उत्पत्ति परले माँहिं ॥७६॥
जिसका जन्म नहीं होता और जो मरता नहीं, उस जीव का उद्धार हुआ कहा जाता है, उद्धार होने पर जीव का जो भी जन्म-मरण मिट जाता है, तब ब्रह्म उत्पत्ति-प्रलय में कैसे जायेगा ? अर्थात जो जन्मता-मरता है वह ब्रह्म नहीं है ।
(क्रमशः)
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