मंगलवार, 2 अक्टूबर 2018

= पीव पिछाण का अंग ४७(४५/४८) =

#daduji

卐 सत्यराम सा 卐
*दादू भीगे प्रेम रस, मन पंचों का साथ ।*
*मगन भये रस में रहे, तब सन्मुख त्रिभुवन-नाथ ॥* 
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
*पीव पिछाण का अंग ४७*
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पियूष१ न पावक पाव ही, शशि सूरज प्रतिबिम्ब । 
आँख आरसी ना लहै, अवलोकत मधि अंब२ ॥४५॥ 
जैसे अग्नि में अमृत१ नहीं मिलता, वैसे ही अवतारों में परब्रह्म नहीं मिलता । दर्पण को देखने से जो उसके पानी२ में चन्द्र सूर्य और आँखों का प्रतिबिम्ब पड़ता है, वह दर्पण में दर्पण के समान पकड़ा नहीं जाता, वैसे ही अवतारों से परब्रह्म की शक्ति का ज्ञान होता है किन्तु अवतारों के समान वह इन्द्रियों से ग्रहण नहीं होता । 
अवतार आतम आरसी, आदि नारायण दीप । 
रज्जब एक अनेक मध्य, पै दीपक दीप उदीप१ ॥४६॥ 
अवतार आत्माएँ दर्पण के समान हैं और आदि नारायण ब्रह्म दीपक के समान है, जैसे एक ही दीपक अनेक दर्पणों को प्रकाशित१ करता हुआ उन सबमें प्रतिबिम्ब रूप से भासता है फिर भी सबसे अलग है, वैसे ही अनेक अवतारों को शक्ति देता हुआ सब में वह एक ही प्रतिबिम्ब रूप से भासता है फिर भी उन सबसे अलग ही है । 
आतम दीपक ज्योति हरि, भाव तेल तहँ पूरि । 
रज्जब पूजि१ प्रकाश को, भूल न पड़िये दूरि ॥४७॥ 
आत्मा दीपक के समान है, परमात्मा उसकी ज्योति के समान है और प्रभु-प्रेम तेल के समान है, जैसे दीप में तेल रहे तब तक ज्योति दीखती है, वैसे ही जीवात्मा में प्रभु-प्रेम है तब तक ही हरि दर्शन होता है, प्रेम न हो तो नहीं होता, अत: भाव को पूर्ण करते हुये प्रभु-प्रकाश को स्थिर रखते हुये उपासना१ कर, प्रेम को भूलकर प्रभु से दूर मत पड़ । 
प्रतिबिम्ब परब्रह्म सुजाना, दर्पण अंबु१ आत्म अस्थाना । 
तवे ठीकरी देखे देशा, रज्जब लहै न सो लवलेशा२ ॥४८॥ 
हे सुजान ! परब्रह्म प्रतिबिम्ब के समान है और अन्त:करण दर्पण के पानी१ के समान है, जैसे तवे की ठीकरी में वह प्रतिबिम्ब किंचित२ मात्र भी नहीं दीखता, वैसे ही मलीन अन्त:करण में ब्रह्म नहीं दिखता ।
(क्रमशः)

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