मंगलवार, 2 अक्टूबर 2018

= १३७ =

卐 सत्यराम सा 卐
*दादू प्रीतम के पग परसिये, मुझ देखण का चाव ।*
*तहाँ ले सीस नवाइये, जहाँ धरे थे पाँव ॥*
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साभार ~ Chetna Kanchan Bhagat

मैं चकित हूं यह देख कर कि आपके तीर्थ में किस भांति देश-देश से दूर-दूर की यात्राएं करके लोग आ रहे हैं। और आप हैं कि कभी अपने कक्ष से भी बाहर नहीं जाते ! यह चमत्कार क्या है? समझावें।
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प्रेम कीर्ति ! चमत्कार इसमें जरा भी नहीं। एस धम्मो सनंतनो ! ऐसा ही सनातन नियम है। दीया जलेगा, तो परवाने दूर-दूर से खोजते चले आएंगे। दीये को उन्हें ढूंढ़ने नहीं जाना पड़ता। दीया अपनी जगह होता है; परवाने आते हैं। और परवाने मिटने आते हैं, दीये के साथ जल कर एक हो जाने आते हैं !
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शिष्य अपनी मृत्यु खोज रहा है। अपनी मृत्यु अर्थात अहंकार की मृत्यु। शिष्य बोझिल है अपने होने से। बहुत ढो चुका भार। खींच चुका हिमालय को बहुत अपने सिर पर। निर्भार होना चाहता है। कोई चरण चाहता है, जहां अपना सारा भार उतार कर रख सके। कोई सान्निध्य चाहता है, जहां बोध जगे, होश जगे, कि अब तक जो कांटे बोए हैं, आगे उनका बोना बंद हो जाए। क्योंकि जो हम बोते हैं, वही हम काटते हैं। कांटे बोते हैं, कांटे काटते हैं। बोते तो कांटे हैं, आशा करते हैं फूलों की। इससे निराशा हाथ लगती है।
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शिष्य खोज रहा है कोई स्थल, कोई विद्यापीठ, कोई सत्संग--जहां फूलों के बीज कैसे बोए जाएं, फूल कैसे उगाए जाएं--इसकी कला सीख सके। और इस कला का पहला कदम है--अपने को मिटा देना, अपने को समर्पित कर देना। समर्पण से बड़ा सौभाग्य इस जगत में दूसरा नहीं है।
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प्रत्येक व्यक्ति समर्पण को खोज रहा है--जाने-अनजाने, गलत-सही। जब तुम प्रेम के लिए आतुर होते हो, तो तुम समर्पण के लिए आतुर हो। लेकिन प्रेम तृप्ति नहीं देगा। क्योंकि समान चेतना की अवस्था वाले दो व्यक्ति एक-दूसरे के प्रति वस्तुतः समर्पित नहीं हो सकते हैं। बुझे दीये के सामने पतिंगा समर्पित भी हो, तो कैसे हो? वह ज्योति ही नहीं है, जिसमें डूबा जा सके, मिटा जा सके, लीन हुआ जा सके।
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बुझे लोग तो बहुत मिलते हैं, तुम अपना प्रेम भी उन पर ढालते हो। पर हाथ कुछ लगता नहीं। लग सकता नहीं। तुम भी बुझे, वे भी बुझे। जहां एक बुझा दीया था, वहां दो बुझे दीये हो जाते हैं। इसलिए प्रेम विषाद लाता है। यद्यपि प्रेम की तलाश समर्पण की थी, लेकिन जल्दी ही प्रेम समर्पण की जगह एक-दूसरे पर मालकियत करने की दौड़ में परिणत हो जाता है।
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बुझा दीया तुम्हें मिटा तो सकता नहीं। बुझे दीये के साथ करोगे क्या? बुझा दीया तुम पर मालकियत करने की कोशिश करेगा। क्योंकि बुझा दीया यानी अहंकार से भरा हुआ व्यक्ति। और अहंकार की एक ही चेष्टा है--दूसरे के ऊपर मालिक हो जाना। अहंकार दावेदार है, परिग्रही है, परिग्रह से ही जीता है। दूसरे पर जितना दावा हो उतना ही अहंकार परिपुष्ट होता है। चले थे समर्पण को, बात उलटी ही हो गई। करने लगे संघर्ष।
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इसलिए जो प्रेम बड़ी सुखद कल्पनाओं और आशाओं में शुरू होते हैं, वे बड़े दुखद नरकों में परिणत हो जाते हैं। परंतु फिर भी प्रेम में खोज तो समर्पण की ही थी। दिशा गलत थी, बात और। लेकिन आकांक्षा सही थी। रेत से तेल निचोड़ना चाहा था। तेल निचोड़ना चाहा था, वह आकांक्षा तो ठीक थी। पर रेत से तेल निचोड़ा नहीं जा सकता, इसलिए असफलता हाथ लगेगी। जीवन एक लंबी विफलता और व्यथा की कहानी हो जाएगा। मरते समय तुम पाओगे: खाली हाथ आए थे, और भी खाली हाथ जाते हो।
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जिनका प्रेम सब जगह से असफल हो चुका है, वे ही सदगुरु के पास आकर सफल हो पाते हैं। जिन्होंने प्रेम को बहुत-बहुत रूपों में देखा, परखा और उसकी पीड़ा झेली है, वे ही सदगुरु के प्रेम में गिर पाते हैं। वह प्रेम की अंतिम पराकाष्ठा है। उसके पार फिर प्रेम निराकार हो जाता है। सदगुरु तक प्रेम में आकार होता है। सदगुरु से प्रवेश हुआ कि प्रेम निराकार हुआ। परवाना जलती हुई शमा पर गिरा कि निराकार हुआ। और जैसे शमा की ज्योति भागी जा रही है आकाश की तरफ, परवाना मिटा कि उसके लिए भी आकाश के द्वार खुले।
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तुम जरा शमा तो जलाओ ! और देखो दूर-दूर से पतिंगे आने शुरू हो जाते हैं। इसमें चमत्कार कुछ भी नहीं है। मनुष्य सदा से तलाश में है। सत्य की किसको अभीप्सा नहीं है?
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मैं यहां बैठ कर मौन पुकार दे रहा हूं। वह मौन पुकार सुनी जाएगी दूर-दूर तक। जहां भी हृदय प्रेम के लिए लालायित है, वहीं हृदयत्तंत्री बज उठेगी। समय और स्थान इस पुकार में व्यवधान नहीं बनते हैं। प्रेम समय और स्थान के अतीत है। वहां दूरियां मिट जाती हैं। वहां कोई दूरी नहीं होती।
मृत्योर्मा अमृतं गमय ~ ओशो

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