गुरुवार, 4 अक्टूबर 2018

= पीव पिछाण का अंग ४७(५३/५६) =


#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
*सब तज गुण आकार के, निश्चल मन ल्यौ लाइ ।*
*आत्म चेतन प्रेम रस, दादू रहै समाइ ॥* 
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
*पीव पिछाण का अंग ४७*
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अविगत१ अरु औंकार बिच, अन्तर है सो जोय । 
रज्जब जीवहु जवाब बहु, जवाब हुं जीवन होय ॥५३॥ 
परमात्मा और ओंकार में जो भेद है, वह देख-जीव से अनेक प्रश्नों के अनेक उत्तर उत्पन्न होते हैं किन्तु अनेक उत्तर जीव को उत्पन्न नहीं कर सकते, वैसे ही परमात्मा से ओंकारादि आदि अनेक शब्द उत्पन्न होते हैं किन्तु वे सब परमात्मा को उत्पन्न नहीं कर सकते । अत: कारण है और ओंकार कार्य है ।
शब्द न समझै आत्मही, आतम राम आगम्म । 
रज्जब कही विचार कर, नेतिहु कही निगम्म१ ॥५४॥ 
अज्ञानी जीव शब्दों के रहस्य को नहीं समझता, आत्माराम तो शब्दों से परे ही है, यह मैंने विचार करके ही कहा है, और स्वयं शब्द रूप वेद१ भी नेति नेति भी कहता है । 
शब्द समाना एक गुण, आतम कला अनेक । 
वचन न पुजे१ बोल से, रज्जब समझ विवेक ॥५५॥ 
शब्द में तो श्रोत्र इन्द्रिय को ज्ञान कराना रूप एक ही गुण है, आत्माराम में तो अनेक शक्ति हैं, वचन बोलने से ही आत्माराम के समान पूर्ण१ नहीं होता, अत: आत्माराम के स्वरूप को विवेकपूर्वक समझना चाहिये । 
जन्म अजन्मा के कहैं, अपने जानें नांहि । 
रज्जब समझ न शब्द की, बके विकल बुधि१ मांहिं । 
अज्ञानी प्राणियों को अपने जन्मों का तो ज्ञान ही नहीं और अजन्मा परमात्मा के जन्मों का कथन करते हैं । उनकी बुद्धि१ में विकलता रहती है, इससे शब्दों को समझे बिना ही बकते रहते हैं ।
(क्रमशः)

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