सोमवार, 8 अक्टूबर 2018

= १४७ =

卐 सत्यराम सा 卐
*दादू जब यहु मनहि मन मिल्या, तब कुछ पाया भेद ।*
*दादू लेकर लाइये, क्या पढ़ मरिये वेद ॥* 
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साभार ~ @Kavita Mishra

एक राजा के दो बेटे थे। राजा के पास बहुत धन था। एक बेटे का नाम ज्ञान था, एक बेटे का नाम प्रेम था। राजा बड़ी चिंता में था कि किसको अपना राज्य सौंप जाए। किसी फकीर को पूछा कि कैसे तय करूं? दोनों जुड़वां थे, साथ—साथ पैदा हुए थे। उम्र में कोई बड़ा—छोटा न था; नहीं तो उम्र से तय कर लेते। दोनों प्रतिभाशाली थे, दोनों मेधावी थे, दोनों कुशल थे। कैसे तय करें? बाप का मन बड़ा डावाडोल था, कहीं अन्याय न हो जाए ! 
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फकीर से पूछा। फकीर ने कहा, ‘यह करो। दोनों बेटों को कह दो कि यही बात निर्णायक होगी। तुम जाओ और सारी दुनिया में बड़े—बड़े नगरों में कोठियां बनाओ। जो कोठियां बनाने में पांच साल के भीतर सफल हो जाएगा, वही मेरे राज्य का उत्तराधिकारी होगा।’
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ज्ञान चला। उसने कोठियां बनानी शुरू कर दीं। मगर पांच साल में सारी पृथ्वी पर कैसे कोठियां बनाओगे ? हजारों बडे नगर हैं ! कुछ कोठियां बनायीं, उसका धन भी चुक गया, सामर्थ्य भी चुक गई, थक भी गया, परेशान भी हो गया। और फिर बात भी मूढ़तापूर्ण मालूम पडी, इससे सार क्या है? 
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पांच साल बाद जब दोनों लौटे तो ज्ञान तो थका—मांदा था, भिखमंगे की हालत में लौटा। सब जो उसके पास थी संपदा, वह सब लगा दी। कुछ कोठियां जरूर बन गईं, लेकिन इससे क्या सार? वह बड़ा पराजित और विषाद में लौटा।
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प्रेम बड़ा नाचता हुआ लौटा। बाप ने पूछा, कोठियां बनाई? प्रेम ने कहा कि बना दीं, सारी दुनिया पर बना दीं। सब बड़े नगरों में क्या, छोटे —छोटे नगरों में भी बना दीं। समय काफी था। बाप भी थोड़ा चौंका। उसने पूछा कि यह तेरा बड़ा भाई, यह तेरा दूसरा भाई, यह तो थका—हारा लौटा है कुछ नगरों में बना कर, तूने कैसे बना लीं?
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प्रेम ने कहा कि मैंने मित्र बनाए, जगह—जगह मित्र बनाए। सभी मित्रों की कोठिया मेरे लिए खुली हैं। जिस गांव में जाऊं वहीं, एक क्या दो —दो, तीन—तीन कोठियां हैं। मकान मैंने नहीं बनाए, मैंने मित्र बनाए। यह आदमी मकान बनाने में लग गया, इसलिए चूक हो गई। मकान तो मेरे लिए खुले खड़े हैं, कोठियां मेरे लिए तैयार हैं, जगह—जगह तैयार हैं। जहां आप कहें, वहा मेरी कोठी। हर नगर में मेरी कोठी !
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एक तो ढंग है प्रेम का और एक ढंग है ज्ञान का। ज्ञान से अंततः विज्ञान पैदा हुआ। ज्ञान की आखिरी संतति विज्ञान है। विज्ञान से अंततः टेक्नोलॉजी पैदा हुई। विज्ञान की संतति टेक्नोलॉजी है; तकनीक है। प्रेम से भक्ति पैदा होती है। भक्ति प्रेम की पुत्री है। भक्ति से भगवान पैदा होता है। वह दोनों दिशाएं बड़ी अलग हैं।
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ज्ञान के मार्ग से जो चला है, वह कहीं न कहीं विज्ञान में भटक जाएगा। इसलिए तो पश्चिम विज्ञान में भटक गया। यूनानी विचारकों से पैदा हुई पश्चिम की सारी परंपरा। वह ज्ञान के. उनकी बडी पकड थी। अरस्तृ प्लेटो ! तर्क और विचार और ज्ञान ! जानना है ! जान कर रहेंगे ! उस जानने का अंतिम परिणाम हुआ कि अणुबम तक आदमी पहुंच गया। मौत खोज ली और कुछ सार न आया। पूरब प्रेम से चला है। तो हमने समाधि खोजी। हमने कुछ अनूठा आकाश खोजा—जहां सब भर जाता है, सब पूरा हो जाता है। 
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अब तो पश्चिम परेशान है, अपने ही ज्ञान से परेशान है। अलबर्ट आइंस्टीन मरने के पहले कह कर मरा है कि 'अगर मुझे दुबारा जन्म मिले तो मैं वैज्ञानिक न होना चाहूंगा—कतई नहीं ! प्लंबर होना पसंद कर लूंगा, वैज्ञानिक होना पसंद नहीं करूंगा।' बड़ी पीड़ा में मरा है कि क्या सार? जानने का क्या सार? होने में सार है।
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प्रेम भी जब तक झुके नहीं तब तक भक्ति नहीं बनता। ज्ञान भी अगर झुक जाए तो ध्यान बन जाता है। लेकिन ज्ञान झुकने को राजी नहीं होता। प्रेम झुकने को बड़ी जल्दी राजी हो जाता है। अगर ज्ञान भी उतर गया होता गंगा में—समझ लो, उतरा नहीं, उतर गया होता—उसने भी निमंत्रण स्वीकार कर लिया होता, डुबकी मार ली होती, तो जैसे मोह प्रेम बन कर निकला, ज्ञान ध्यान बन कर निकल सकता था। लेकिन किनारे पर अकड़ा खड़ा रह गया, तो विज्ञान बन गया, तो टेक्नोलॉजी बन गई। तो सब चीजें खराब होती चली गईं।
ओशो अष्‍टावक्र: महागीता–(भाग–2) प्रवचन–16

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