卐 सत्यराम सा 卐
*अर्थ अनुपम आप है, और अनर्थ भाई ।*
*दादू ऐसी जानि कर, तासौं ल्यौ लाई ॥*
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साभार ~ @Kavita Mishra
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हरमन हेस ने किताब लिखी है, सिद्धार्थ। उसमें सिद्धार्थ एक पात्र है, वह नदी के किनारे वर्षों रहता है, नदी को अनुभव करता है। कभी नदी जोर में होती है, तूफान होता है, आधी होती है, तब नदी का एक रूप प्रकट होता है। कभी नदी शांत होती है, मौन होती है, लीन होती है अपने में, लहर भी नहीं हिलती है, तब नदी का एक और ही रूप होता है।
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कभी नदी वर्षा की नदी होती है, विक्षिप्त और पागल, सागर की तरफ दौड़ती हुई, उन्मत्त। तब नदी में एक उन्माद होता है, एक मैडनेस होती है, उसका भी अपना आयाम है, अपना अस्तित्व है। और कभी धूप आती है, गर्मी के दिन आते हैं, और नदी सूख जाती है, क्षीण हो जाती है; दीन—दुर्बल हो जाती है, पतली, एक नदी की चमकती धार ही रह जाती है। तब उस नदी की दुर्बलता में, उस नदी के मिट जाने में कुछ और है।
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धीरे—धीरे सिद्धार्थ उस नदी के किनारे रहते—रहते नदी की वाणी समझने लगता है। धीरे— धीरे नदी के भाव समझने लगता है, मूड समझने लगता है। नदी कब नाराज है, नदी कब खुश है, कब नदी नाचती है और कब नदी उदास होकर बैठ जाती है ! कब दुखी होती है, कब संतप्त होती है, कब प्रफुल्लित होती है, वह उसके सारे स्वाद, उसके सारे अनुभव, नदी की अंतर्व्यथा और नदी का अंतर्जीवन, नदी की आत्मकथा में डूबने लगता है।
धीरे—धीरे नदी उसके लिए बड़ी शिक्षक हो जाती है।
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वह इतना संवेदनशील हो जाता है कि वह पहले से कह सकता है कि आज सांझ नदी उदास हो जाएगी। वह पहले से कह सकता है कि आज रात नदी नाचेगी। वह पहले से कह सकता है कि आज नदी कुछ गुनगुना रही है, आज उसके प्राणों में कोई गीत है। वर्षों—वर्षों नदी के किनारे रहते—रहते, नदी और उसके बीच जीवंत संबंध हो जाते हैं।
तब नदी ही परमात्मा हो जाएगी। इतनी संवेदना अगर आ जाए, तो अब किसी और परमात्मा को खोजने जाना न पड़ेगा।
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जिन ऋषियों को गंगा में परमात्मा दिखा, वे कोई आप जैसे गंगा के तीर्थयात्री नहीं थे, कि गए, और दो पैसे वहां फेंके, और पंडे से पूजा करवाई, और भाग आए अपने पाप गंगा को देकर! जिन्होंने अपने पुण्य गंगा को नहीं दिए, वे गंगा को कभी नहीं जान पाएंगे। पाप भी देकर कहीं कोई जान पा सकता है?
इसलिए हमारे लिए गंगा एक नदी है। हम कितना ही कहें कि पवित्र है, हम भीतर जानते हैं कि बस नदी है। हम कितना ही कहें, पूज्य है, लेकिन सब औपचारिक है।
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लेकिन जिन्होंने वर्षों—वर्षों गंगा के तट पर रहकर उसके जीवन की धार से अपनी जीवन की धार मिला दी होगी, उनको पता चला होगा। तब किसी भी गंगा के किनारे पता चल जाएगा। तब किसी खास गंगा के किनारे ही जाने की जरूरत नहीं है, तब कोई भी नदी गंगा हो जाएगी और पवित्र हो जाएगी।
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संवेदनाएं उधार नहीं मिलती। लेकिन बुद्धि उधार मिल जाती है। हमारे विश्वविद्यालय, विद्यालय बुद्धि को उधार देने का काम कर रहे हैं। बुद्धि उधार मिल जाती है, शब्द उधार मिल जाते हैं, संवेदनाएं स्वयं जीनी पड़ती हैं। और इसीलिए तो हम संवेदनाओं से धीरे— धीरे टूट गए। क्योंकि हम इतने उधार हो गए हैं कि जो उधार मिल जाए, बाजार से खरीदा जा सके, वह हम खरीद लेते है। जो उधार मिल जाए, वह हम ले लेते हैं, चाहे जिंदगी ही उसके बदले में क्यों न चुकानी पड़े। लेकिन जो खुद जानने से मिलता है, उतनी झंझट, उतना श्रम कोई उठाने को तैयार नहीं है।
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तो हमने धीरे— धीरे जीवन के सब संवेदनशील रूप खो दिए। और उन्हीं की वजह से हमें पता नहीं चलता कि परमात्मा भी पुकारता है, वह भी आता है, वह भी हम से मिलने को आतुर है। चारों तरफ से उसके हाथ हमारी तरफ आते हैं, लेकिन हमें संवेदनहीन पाकर वापस लौट जाते हैं। जो व्यक्ति अपनी संवेदना के सभी द्वार खुले रख दे, उस व्यक्ति को, परमात्मा भी मुझसे मिलने को आतुर है, इसका पता चलेगा।
- गीता दर्शन, ओशो !!
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