शनिवार, 13 अक्टूबर 2018

= पीव पिछाण का अंग ४७(८१/८४) =

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卐 सत्यराम सा 卐
*निराधार निज भक्ति कर, निराधार निज सार ।*
*निराधार निज नाम ले, निराधार निराकार ॥* 
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
*पीव पिछाण का अंग ४७*
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रज्जब उदय अस्त त्रिगुणी भक्ति, इनका यही स्वभाय । 
निर्गुण निश्चल एक रस, नर देखो निरताय ॥८१॥ 
त्रिगुणात्मिका शक्ति रूप अवतार प्रकट होकर छिपते हैं, उनका यही स्वभाव है, उसकी भक्ति से उनका मायिक स्वरूप ही प्राप्त होगा, और निर्गुण ब्रह्म तो निश्चल एक रस है, इससे निर्गुण का उपासक भी उसी रूप को प्राप्त होगा । हे विचारशील नरो ! तुम भी विचार करके देखो कि उसकी उपासना श्रेष्ठ है । 
त्रिगुण रहित त्योरी१ चढ्या२, निर्गुण निरख्या नैन । 
रज्जब राता ठौर तिहिं, कदे३ न होय अचैत ॥८२॥ 
हमारी ज्ञान दृष्टि१ में त्रिगुण रहित ब्रह्म ही आया२ है, हमने निर्गुण को ज्ञान नेत्रों से देखा है, इससे हम उसी निर्गुण ब्रह्मरूप स्थान में अनुरक्त हैं, अब हमें जन्मादि संसार दु:ख कभी३ भी नहीं होगा । 
आकार इष्ट जिन आतमहुं, पै निश्चय निराकार ।
कहतों कर ऊंचे करहिं, नीचे सेवन हार ॥८३॥ 
जिन आत्माओं का इष्ट साकार है; उनके भी निश्चय में तो निराकार ही है, कारण - वे उपासक भी नीचे खड़े होकर अपने ईश्वर की सहायता आदि का कथन करते समय निराकार आकाश की ओर ऊंचा हाथ करके कहते हैं - "वह सहायता करेगा", "वह देखेगा" इत्यादि । 
निराकार सौं नरहुं के, मन वच कर्म सनेह । 
सबको देखैं शुन्य१ दिशि, रज्जब गये सुमेह२ ॥८४॥ 
वर्षा करके साकार बादल२ चला जाता है तब सभी लोग निराकार आकाश१ की ओर देखते हैं, अत: सभी मनुष्यों के हृदय में मन, वचन, कर्म द्वारा निराकार से ही प्रेम है ।
(क्रमशः)

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