मंगलवार, 2 अक्टूबर 2018

= १३८ =

卐 सत्यराम सा 卐
*मन इन्द्री अंधा किया, घट में लहर उठाइ ।*
*साँई सतगुरु छाड़ कर, देख दिवाना जाइ ॥*
*इन्द्री के आधीन मन, जीव जंत सब जाचै ।*
*तिणे तिणे के आगे दादू, तिहुं लोक फिर नाचै ॥*
==============================
साभार ~ Swami Prbodh Abadh

*॥ ये शरीर नव छिद्रों की बाम्बी ॥*

*जै श्री महाकाल*
यह शरीर एक बहुत बड़ा शहर है प्रज्ञा ही इसकी चार दिवारी है, हड्डियाँ ही इसमें खम्बे का काम देती हैं। चमड़ा ही इस नगर की दीवार है, जो समूचे नगर को रोके हुए है। माँस और रक्त का इसपे लेप चड़ा हुआ है। इस नगर में नव दरवाजे हैं।
.
इसकी रक्षा में बहुत बड़ा प्रयास करना होता है। नस-नाड़ियां इसे सब और से घेरे हुए हैं। चेतन पुरुष ही इस नगर के भीतर राजा के रूप में विराजमान हैं। उसके दो मंत्री हैं - बुद्धि और मन । वे दोनों परस्पर विरोधी हैं और आपस में बैर निकालने के लिए दोनों ही यत्न करते रहते हैं। चार ऐसे शत्रु हैं, जो उस राजा का नाश चाहते हैं । उनके नाम हैं - काम, क्रोध, लोभ तथा मोह।
.
जब राजा उन नवों द्वारो को बंद किये रहता है, तब उसकी शक्ति सुरक्षित रहती है और वह सदा निरभय बना रहता है। वह सबके प्रति अनुराग रखता है, अतः शत्रु उसका पराभव नहीं कर पाते। परंतु जब वह नगर के सभी दरवाजों को खुला छोड़ देता है, उस समय राग नामक शत्रु नेत्र आदि द्वारों पर आक्रमण करता है। वह सर्वत्र व्याप्त रहने वाला, बहुत विशाल और पांच दरवाजों से नगर में प्रवेश करने वाला है। उसके पीछे पीछे तीन और भयंकर शत्रु इस नगर में घुस जाते हैं।
.
पांच इन्द्रिय नामक द्वारों से शारीर के भीतर प्रवेश करके राग मन तथा अन्यान्य इन्द्रियों के साथ सम्बन्ध जोड़ लेता है। इस प्रकार इन्द्रिय और मन को वश में करके दुर्धष हो जाता है समस्त दरवाजो को काबू में करके चार दीवारों को नष्ट कर देता है। मन को राग के अधीन हुआ देख बुद्धि तत्काल नष्ट हो जाती(पलायन कर जाती) है। जब मंत्री साथ नहीं रहते, तब अन्य पुरवाशी भी उसे छोड़ देते हैं ।
.
फिर शत्रुओं को उसके छिद्र का ज्ञान हो जाने से राजा उनके द्वारा नाश को प्राप्त होता है। इस प्रकार राग, मोह, लोभ तथा क्रोध - ये दुरात्मा शत्रु मनुष्य की स्मरण शक्ति का नाश करने वाले है।राग से काम होता है, काम से लोभ का जन्म होता है, लोभ से सम्मोह-अविवेक होता है और सम्मोह से स्मरण शक्ति भ्रांत हो जाती है। स्मृति की भ्रान्ति से बुद्धि का नाश होता है और बुद्धि का नाश होने से मनुष्य स्वयं भी नष्ट-कर्त्तव्य भ्रष्ट हो जाता है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें