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॥ श्री दादूदयालवे नमः ॥
स्वामी सुन्दरदासजी महाराज कृत - *सुन्दर पदावली*
साभार ~ महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य ~ श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*= १६. राग सोरठ (१६/१)=*
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*तीरथिया तीरथ कौं दौडे*
*हज कौं दौडै हाजी ।*
*अन्तर गति कौं षोजै नाहीं*
*भ्रमणै ही सौं राजी ॥३॥*
*अपने अपने मद के मांते*
*लषैं न फूटी साजी ।*
*सुन्दर तिनहिं कहा अब कहिये*
*जिनकै भई दुराजी ॥४॥*
तीर्थयात्रा से मुक्ति मानने वाले तीर्थों में ही दौड़ते रहते हैं । हाजी लोग हज(मुसलमानों का तीर्थ) की दौड़ लगाते हैं, परन्तु अपने हृदय में विराजमान उस गूढ़तत्त्व की ओर किसी का ध्यान नहीं जाता है । वे तो इधर उधर व्यर्थ दौड़कर ही प्रसन्न हो रहे हैं ॥३॥
इस प्रकार, वे अपने अपने मत में उन्मत्त होकर अपने यथार्थ(सत्य) लक्ष्य को भूल गये हैं । महात्मा सुन्दरदासजी कहते हैं – उनको अब कौन समझावे जो द्वैतमत में भ्रान्त हो चुके हैं ॥४॥१३२॥
(क्रमशः)
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