मंगलवार, 16 अप्रैल 2019

= *शूरातन का अंग ७१(३३/३६)* =

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卐 सत्यराम सा 卐 
*पतिव्रता निज पीव को, सेवै दिन अरु रात ।*
*दादू पति को छाड़ कर, काहू संग न जात ॥*
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**श्री रज्जबवाणी** 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
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**शूरातन का अंग ७१** 
शूर सती साहस स्वलप१, निमड़२ जाँहि पल माँहि । 
साधू युद्ध सु आयु भर, भारत३ छूटे नाँहि ॥३३॥ 
शूरवीर और सती की वीरता स्वल्प१ ही होती है थोड़ी देर में दोनों अपने काम से मुक्त२ हो जाते हैं किन्तु संत शूर का युद्ध३ कामादि से आयु भर होता है, संत इस युद्ध से मुक्त नहीं होता । 
शूर सती संग्राम एक पल, साधु लड़ै भरि आव१ । 
रज्जब मन मनमथ२ शिरहिं, घाले३ निशि दिन घाव ॥३४॥ 
वीर और सती का युद्ध थोड़ी देर का ही होता है, साधु का युद्ध आयु१ भर का होता है, साधु रात्रि दिन मन के चंचलता रूप शिर पर संयमता रूप घाव व काम२ के अधिकता रूप शिर पर वस्तु विचार का घाव करता३ रहता है ।
संग्राम सदा मन जीव को, अह१ निशि होय अखंड । 
रज्जब जाणें जोध जन, पूरा प्राण प्रचंड ॥३५॥ 
सदा दिन१ रात मन और जीव का अखंड युद्ध होता है किन्तु उस उग्र२ युद्ध को पूरे संत प्राणी योद्धा ही जानते हैं । 
जगत युद्ध जरिया सुगम, पल में पिंड प्रहार । 
योग संग्राम रु ब्रह्म अग्नि सत, रज्जब अगम अपार ॥३६॥ 
साँसारिक युद्ध करना तथा चिंता की अग्नि में जलना सुगम है, क्षण भर के प्रहार से नाश होता है किन्तु योग संग्राम और सत्य ब्रह्म अग्नि से प्राणी नष्ट न होकर अगम ब्रह्म रूप हो जाता है । 
(क्रमशः)

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