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🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*दादू बहुरूपी मन जब लगै, तब लग माया रंग ।*
*जब मन लागा राम सौं, तब दादू एकै अंग ॥*
*हीरा मन पर राखिये, तब दूजा चढै न रंग ।*
*दादू यों मन थिर भया, अविनाशी के संग ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
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*उपदेश चेतावनी का अंग ८२*
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जैसे मन माया मिलै, जीव ब्रह्म यूं मेल ।
रज्जब बहुरि न पाइये, यहु अवसर यूं खेल ॥८५॥
जैसे मन माया में मिलता है, वैसे ही जीव ब्रह्म में मिला, यह मनुष्य शरीर का समय फिर सहज ही नहीं मिलेगा, अत: उक्त प्रकार ब्रह्म मिलनरूप खेल शीघ्र ही खेल ले ।
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रज्जब मन रु मनोरथों, मेला अचल अभंग ।
ऐसे आतम राम हित सदा, सु सांई संग ॥८६॥
जैसे मन मनोरथों से मिलन के लिये निरंतर रुचि रखता है वैसे ही जीव राम से मिलने के लिये अचल प्रेम रखे तो प्रभु सदा साथ ही भासेंगे ।
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रज्जब आभे अंबु का, देखो शून्य सनेह ।
ऐसे आतम राम सौं, शिक्षा दीक्षा येह ॥८७॥
जैसे बादल और जल का आकाश से स्नेह होता है, वैसे ही आत्मा को राम से होना चाहिये, यही शास्त्रों की शिक्षा है यही गुरुजनों की दीक्षा है ।
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ज्यों जल-दल सौं जीव का, अतिगति मित्राचार ।
त्यों रज्जब कर राम सौं, सरै१ सीख निज सार ॥८८॥
जैसे जीव का अन्न-जल से अति प्रेम है, वैसे ही राम से करना चाहिये, यह निज कल्याण के लिये श्रेष्ठ१ और सार रूप शिक्षा है ।
(क्रमशः)
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