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*आज्ञा मांही बाहर भीतर, आज्ञा रहै समाइ ।*
*आज्ञा मांही तन मन राखै, दादू रहै ल्यौ लाइ ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ निष्काम पतिव्रता का अंग)*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
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*उपदेश चेतावनी का अंग ८२*
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मन उनमनी लागा रहै, माया मध्य न जाय ।
ब्रह्म अग्नि में जारै बीज हिं, बहुरि उगै नहिं आय ॥१४९॥
मन सहज समाधि में लगा रहे, माया में नहीं जाय, ब्रह्म ज्ञानाग्नि में अज्ञान रूप बीज को जला दे, जिससे पुन: नहीं उगे अर्थात जन्म लेकर संसार में न आवे ।
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रज्जब राखै मीच मन, हरि को भूलै नाँहिं ।
यहु दीक्षा उपदेश यहु, साधों के मत माँहिं ॥१५०॥
मृत्यु को मन में याद रक्खे, हरि का स्मरण न भूले, संतों के सिद्धान्त में यही गुरु दीक्षा है और यही संत - शास्त्रों का उपदेश है ।
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राग करोहु रंकार१ से, अलिफ२ अराधो३ मन्न४ ।
रे रज्जब संसार में, और न ऐसा धन्न५ ॥१५१॥
राम मंत्र के बीज "राँ१" से प्रेम कर, संसार के आदि२ स्वरूप राम की मन४ से उपासना३ कर, हे प्राणी ! संसार में ऐसा धन५ अन्य कोई भी नहीं है ।
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बहु विद्या रु विभूति१ बहु, बहु सुन्दर सुकुलीन ।
रज्जब चहुं२ में चूक३ यहु, सुमिरण सुकृत हीन ॥१५२॥
विद्या वाले विद्धान बहुत हैं, ऐश्वर्य१ वाले धनी बहुत हैं, सुन्दर बहुत हैं और सुकुलीन भी बहुत हैं, किन्तु हरि - स्मरण और पुण्य कर्म से हीन हैं वा हरि - स्मरण रूप सुकृत से हीन हैं तो वो उक्त चारों२ में ही भूल३ हैं ।
(क्रमशः)
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