शुक्रवार, 6 सितंबर 2019

= ३९ =

🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*जैसा है तैसा नाम तुम्हारा, ज्यों है त्यों कह सांई ।*
*तूं आपै जाणै आपको, तहँ मेरी गम नांहि ॥*
=========================
साभार ~ @NIRMALA MISHRA
.
*'मुक्ति मानव विकास का प्रथम चरण है, अंतिम नहीं।'*
(अंतिम मानने से इच्छा का प्रक्षेपण होता है, उसकी ओर खिंचाव होता है, विश्वास-अविश्वास की मन:स्थिति बनती है जबकि वर्तमान में शांति से बैठकर यह सब समझने की कोशिश करने से धीरे धीरे सब समझ में आने लगता है। यह समझ ही मुक्ति का कार्य करती है। समझ और मुक्ति एक ही है। गीता साधना के आरंभ में रागद्वेष, पसंदनापसंद, रुचि अरुचि रहित होने के लिये कहती है। तब आत्म अवलोकन किया जाय तो समस्या कहां है? अपने में जो भी है उसे देखना है, समझना है - प्रेम, क्रोध, घृणा, दया, संतोष जो भी हो। बिना पसंद नापसंद के अपने में यह सब देखना, समझना इनसे मुक्त होकर ही तो देखना, समझना है।)
.
*'आप इसकी सुंदरता, इसकी गरिमा, इसकी असामान्य शक्ति नहीं देखते।'* (बिना पसंद नापसंद, बिना रुचि अरुचि के अपने अपको देखने पर एक चीज महत्वपूर्ण रह जाती है - अपना अस्तित्व बोध जिसे न नकारा जा सकता है, न जिससे छूटा जा सकता है अपितु उसके साथ जरूर रहा जा सकता है जितना ज्यादा, जितनी गहराई से। लेकिन मन में प्रक्षेपण होता है लोगों का, घटनाओं, परिस्थितियों का और तब बढा हुआ रुचि, अरुचि का बल अपने साथ रहने में बाधक बन जाता है।)
.
*'स्वार्थ विचार है और विचार मानवता का शत्रु है।'*
(बारबार कहने पर भी इस तथ्य की ओर ध्यान आता ही नहीं कि स्वयं ही द्रष्टा और दृश्य बना हुआ है परंतु स्वयं को द्रष्टा ही मानकर दृश्य को बाहरी, पराया, अलग मान लेता है जिससे अंतर्विरोध पैदा होता है। स्वयं ही स्वयं का विरोधी बन जाता है। इस विरोध को पुष्ट करने वाले विचार निरंतर चलते रहते हैं जिसका मानवता से कोई संबंध नहीं।)
.
*'मन कभी केंद्र में न रहे, अहं में न रहे।'*
(अहं अपने को अपने से तोडता है और बौद्धिक जानकारी का अधिग्रहण करके उसका स्वामी बन जाता है। ज्ञानचर्चा श्रेष्ठ है, वादविवाद नहीं। उसमें अहं की उपस्थिति वस्तुस्थिति को नजरअंदाज करती है। अहंयुक्त ज्ञान विष जैसा है। खुद को भी मारता है, दूसरों को भी। अहंरहित ज्ञान अमृत जैसा है। खुद को भी तारता है, दूसरों को भी तारता है।
.
ज्ञान में दूसरा होता ही नहीं फिर भी ज्ञान में गुणों की ही वृद्धि होती है प्रेम, नम्रता, समझदारी ही बढती है, नासमझी नहीं। इसका मतलब सत्य अपने साथ गुणों की वृद्धि लिये चलता है। यह उसका स्वभाव है। उसके कार्य-कारण तद्रूप ही होते हैं - यत्र योगेश्वर: कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धर:। 'इसलिए कभी चोट लगे तो समझ लेना चाहिए अभी विभाजक अहंकार मौजूद है। यह स्वयं से ही विभाजन है, स्वयं का ही विरोध है क्योंकि स्वयं ही द्रष्टा तथा दृश्य है।
.
जब यह भेद मूल मे विलीन हो जाता है तब सारी सृष्टि स्वयं का रुप हो जाती है, स्वयं ही होता है, पर नहीं। यह समझ, यह बोध व्यक्तिगत रुप से ही घटित होता है क्योंकि स्वयं ही जान सकता है कि उसे चोट लगती है या नहीं? यदि चोट लगती है तो घबराने की या खुद को दोषी समझने की बात नहीं, केवल मूल स्रोत मे, हृदय मे उतर आने की बात है जहां द्रष्टा, दृश्य दोनों का पर्यवसान होता है।
.
केवल आनंद रह जाता है - सत चित आनंद। कुछ लोग अप्रभावित रहते हैं। वे किसीके विरोध की परवाह नहीं करते, न उन्हें चोट लगती है पर यह कोई ज्ञानांजन युक्त स्थिति नहीं है।अहंकार तब भी वहां अपने अलगाव में बना रहता है। अहंकार का आत्मा में विलय होने पर ही चित्त की प्रज्ञापूर्ण स्थिति प्रकाश में आती है। शांति, सद्भाव, प्रेम, नम्रता बने रहते हैं।)
.
*'क्या कोई समाधान है? यह प्रश्न ही सब कुछ नष्ट कर देता है।'*
(मेरे कई मित्रों मे एक मित्र ऐसा था जिसने कभी प्रश्न के रुप मे चर्चा नहीं की। उसका सत्संग सदैव समाधान पूर्ण होता था। समाधान दो तरह का होता है। एक वह जो सत्य को जाने बिना होता है, दूसरा वह जो सत्य को जानकर होता है। सत्य को बिना जाने चाहे जाने वाला समाधान सुखदुख, लाभहानि के द्वंद्व से जुडा होता है। सत्य जानने पर होने वाला समाधान निर्द्वन्द्व होता है।
.
गीता समता में ही सुरक्षा का उपाय ढूंढने के लिये कहती है। या तो सुखदुख दोनों को अपना लिया जाय या दोनों को छोड दिया जाय तब सही समाधान है लेकिन हम तो एक ही का चुनाव करते हैं, सुख को अपनाते हैं, दुख को त्यागते हैं, अपमान को ठुकराते हैं, सम्मान को स्वीकारते हैं।
.
लेकिन ये दोनों तो हमेशा साथ होते हैं एक दूसरे पर पूरी तरह से निर्भर। अंतर्विरोध, अंतर्द्वंद्व का यही तो कारण है। जब सही समझ होती है, समता होती है तब कोई चुनाव, कोई आग्रह नहीं रहता तब सारा अंतर्द्वंद्व विलीन हो जाता है। कोई चाहे तो उससे दोस्ती करे, कोई चाहे तो दुश्मनी करे मगर वह स्वयं समत्वयोग मे स्थित होता है।
.
ऐसा नहीं कि किसीने क्षमा मांगी तो तुरंत पिघल गये या एकदम राहत हो गयी। यह तो अहंकार की उपस्थिति का सूचक है। इससे व्यक्तिगत रुप से सावधान रहना चाहिए। समता की समझ सामूहिक रुप से विकसित नहीं की जाती। यह बात और है कि साधक स्वयं समझा और सुलझा हुआ हो तो उसका असर समूह पर पडता है पर उसकी वैसी कोई इच्छा या प्रयास नहीं होता।
.
वह समता से अपने आत्मस्वरुप मे स्थित होता है, परम स्वस्थ होता है। उसमें 'पर' होता ही नहीं। 'पर' का मतलब माया, 'पर' का मतलब अनात्मा; 'स्व' का मतलब आत्मा। इसलिए स्व के रास्ते अपने अस्तित्व बोध की गहराई में उतरने से उसकी अखंडता का अनुभव होता है।
.
यदि कोई सचमुच स्वस्थ है तो वह सर्वव्यापक रुप से स्वस्थ अनुभव होता है। यह आत्मा का अनुभव है। यह दोरहित अनुभव है। इसमें न 'मै' होता है, न 'दूसरा'।
"The seen regarded as self is real. The seen is not different from the seer. What exists is the one self, not the seer and seen."
द्रष्टा, दृश्य का मतलब माया, अंतर्विरोध, अंतर्द्वंद्व:केवल स्वानुभूति का मतलब शांति। इस अनुभव मे जो आया वह शांत हो जाता है। क्या करे जब द्रष्टा ही नहीं है, दृश्य ही नहीं है अर्थात मायिक मन ही नहीं है। सत्य है। अनुभव है। अनुभवकर्ता रहित अनुभव। सत्य के अनुभव में अनुभवकर्ता नहीं होता। जब तक अनुभवकर्ता मौजूद है, वह सत्य का अनुभव नहीं। जब तक ज्ञाता है, सत्य नहीं क्योंकि ज्ञाता ही ज्ञात होता है। वही अनुभव में आता है। वह सत्य है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें