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*जहाँ जहाँ दादू पग धरै, तहाँ काल का फंध ।*
*सर ऊपर सांधे खड़ा, अजहुँ न चेते अंध ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
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*काल का अंग ८४*
इस अंग में काल सम्बंधी विचार कर रहे हैं ~
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काल किसी छोड़ै नहीं, सुर नर सब ब्रह्मण्ड ।
जन रज्जब दृष्टान्त को, यथा अग्नि वन खंड ॥१॥
जैसे अग्नि संपूर्ण वन को भस्म कर डालता है, वैसे ही काल, देवता नर और संपूर्ण ब्रह्माण्ड में किसी को भी नहीं छोड़ता, सब को नष्ट कर देता है ।
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काल न छोड़ै ज्ञान गुण, वेद पढै जो चार ।
जन रज्जब मंजार ज्यों, पढ्या अपढ शुक मार ॥२॥
जैसे बिल्ला पढे हुये, अनपढ सुकुमार आदि सभी तोतों को मार डालता है, वैसे ही काल, ज्ञान तथा गुण संग्रह करने पर और चारों वेद पढ़ने पर भी नहीं छोड़ता, सभी को मार देता है ।
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रज्जब रहै न राज बल, छूटै रंक न होय ।
जम ज्वाला नर तरु सुतृण, क्यों करि बंचै कोय ॥३॥
राज्य के बल से राजा जीवित नहीं रह सकता, रंक भी काल से नहीं छूट सकता, अग्नि की ज्वाला से सुन्दर तृण और वृक्ष कसे बच सकते हैं ? वैसे ही यम से नरादि में कोई भी नहीं बच सकता ।
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साहिब बिन साहिब किया, सो रज्जब सब जाय ।
काल१ सहित सब काल मुख, जे देखा निरताय२ ॥४॥
परमात्मा के बिना जो भी परमात्मा ने रचा है वह सभी नष्ट हो जायेगा, विचार२ करके देखा जाय तो यम१ के सहित सभी काल के मुख में जाने वाले हैं ।
(क्रमशः)
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