बुधवार, 4 सितंबर 2019

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🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*दादू खेल्या चाहै प्रेम रस, आलम अंगि लगाइ ।*
*दूजे को ठाहर नहीं, पुहुप न गंध समाइ ॥*
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साभार ~ @Nirmala Mishra
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✦ क्या ऐसा ध्यान है जो प्रयास नहीं है?'
प्रायः यह प्रश्न पूछा जाता है कि ध्यान कैसे किया जाय? इसे किसी प्रयास से जोडा जाता है। प्रयास के पीछे आक्रामक इच्छा होती है जो ध्यान को या ध्यान के फल को पाना चाहती है जबकि ध्यान तभी सफल होता है जब कोई इच्छा इससे जुडी न हो। 
आदमी को यह समझ में नहीं आता कि इच्छामुक्त व्यक्ति ही ध्यान की गहराई में जा सकता है। उसे लगता है बिना इच्छा का कोई कर्म नहीं होता होगा। संभव है मगर ध्यान का जहां तक प्रश्न है तो उसमे प्रवृत्त होने वाले को इच्छा तथा उसके आवेगों को एक तरफ रखना होगा, समझदारी से, आग्रहपूर्वक नहीं।
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✦ ध्यान कुछ ऐसा है जो पूर्णतः शांत है। पहले अत्यंत नम्रता से, बहुत बहुत नम्रता से आरंभ करें अत्यंत सौम्यता से इस प्रकार कि उसमें प्रयास, परिचालन न हो कि मैं यह अवश्य करुं !'
क्या कभी ऐसा लगता है कि कुछ भी नहीं कर रहे हैं, केवल शांति से बैठे हैं, शांति का अनुभव हो रहा है? हर व्यक्ति को कभी ऐसा अनुभव अवश्य होता है पर यह स्थिति ज्यादा देर नहीं बनी रहती। विचारों और कामनाओं का वेग फिर से घेर लेता है।
देह को लेकर सुरक्षा, असुरक्षा के फंदे मे मस्तिष्क जैसे कसा रहता है। उसे देहबंधनमुक्त सुखद स्वतंत्रता का अहसास नहीं होता। किसी को इसकी आवश्यकता जान पडे तो उपाय रूप में वह ध्यान को अपनाना चाहता है। उसमे भी इच्छा का आक्रामक रुप तो होता ही है जो ध्यान की प्रक्रिया मे नितांत बाधक है अतः बडी नम्रता, बडी सौम्यता से शुरू करने की बात है।
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✦ क्या आपका दिमाग शांत है? आपका दिमाग तो हर समय डर रहा है।'
यह दंभ करना व्यर्थ है कि मैं किसी से नहीं डरता। दिमाग हर समय तनावग्रस्त रहता है। वहां कुछ चाहिए, कुछ नहीं चाहिए का जोर है जो चिंता का रुप लेता है। चिंता, भय का ही एक रुप है। भय या आशंका सदैव चिंताजनक है।
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✦ सत्ता, पद, प्रतिष्ठा, यश अपयश लेकिन यह तो जीवन नहीं है, यह तो जीवन का नाश है। तो जीवन क्या है?'
अहंकार से बंधी जीवनप्रणाली को स्वाभाविक मान लिया है पर यह पूरी तरह से अस्वाभाविक है। जीवन तभी सही तरह से जीया जाता है जब स्थायी रुप से स्वतंत्रता तथा सुख का अनुभव हो रहा हो। काल्पनिक अहम्मन्यता, काल्पनिक सत्ता, पदप्रतिष्ठा, यश के विचारों को सत्य मानकर अपनी सुरक्षा के प्रबंध में पूरी तरह से डूब जाती है। 
यही नहीं वह इसके लिये आत्मविश्वास का सहारा भी लेती है जो हास्यास्पद है, अहं के अपने कल्पित सहारे के विश्वास पर टिके रहने की कोशिश के कारण। आत्मविश्वास तो आत्मा का विश्वास है, ऐसा विश्वास जिसे किसी सहारे की, प्रमाण की जरूरत नहीं अन्यथा विश्वास जैसी प्रबल वस्तु सदैव अविश्वसनीय वस्तु बनी रहती है। 
जिसे कुछ जरूरी नहीं वह है होना। यह होना ही तो आत्मा है। सत्य कहें, सत्ता कहें- जो है, जो काल्पनिक नहीं है। जिसके भरोसे बडी से बडी(कथित) समस्या की बाधा को तरा जा सकता है। यह होना ही है जिस पर सुखदुख, मानापमान आदि की सारी घटनाएं पूरी तरह से निर्भर हैं। यह नहीं तो कुछ नहीं। 
देह निष्प्राण हो तो बडे से बडे(तथाकथित) गंभीर मामले तत्काल समाप्त मान लिये जाते हैं। देह के अंदर जीवन से इतनी बडी रंजीश? उसके महत्व को गंभीरता से क्यों नहीं लिया जाता? दर असल यह होना, यह उपस्थिति ही है जो परम गंभीरता से लेने योग्य है। इसे तुच्छ रागद्वेष, पसंद-नापसंद, इच्छा अनिच्छा के आवेगों से घिरे रहकर ऐसे ही नष्ट कर दिया जाता है। 
न अपने में आत्मा की उपस्थिति का सम्मान, न किसी और मे आत्मा की उपस्थिति का सम्मान। हर समय हरेक से बच निकलने की कोशिश। ऐसे में ध्यान की बात करेंगे तो उसके पीछे भी अपना ही स्वार्थ होगा। क्या हम ध्यान को बाहर से शुरु कर सकते हैं? तब हम हर व्यक्ति की उपस्थिति को अत्यंत नम्रता से, अत्यंत सौम्यता से ले सकते हैं।
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✦ 'स्वतंत्रता के बिना सत्य नहीं।'
सत्य को न खोजें, स्वतंत्रता को खोजें, स्वतंत्रता को न खोजें, अस्तित्व का सम्मान करें। अपने कल्पित सुख के कठोर रक्षक न बने रहें। हर आदमी अपने को ऐसा बचा कर निकलता है, दूसरे का अतिक्रमण करके मानो उसके सुख की बडी हानि हो जायेगी। पर अहंकार का सुख तो उसकी कल्पना का सुख है। अपने काल्पनिक सुख की सुरक्षा के प्रयासों से ही तो इतना उपद्रव है। कोई किसी के साथ नहीं। कोई बात नहीं, चलो अपने साथ तो रहे, मगर अपने साथ भी कहां रहता है, हमेशा दूसरों से आगे निकलने मे ही रहता है जबकि अपने साथ रहने का अर्थ है, सबके साथ रहना। 
सबके साथ रहने का अर्थ है अपने आपके साथ रहना। सब हैं कहां, स्वयं ही है। स्वयं ही अंत:करण की वजह से विचार तथा विचारकर्ता, द्रष्टा-दृश्य तथा अनुभव करने वाले और अनुभव होने वाले में बंटा हुआ है। 
यह पता नहीं चलता तथा स्वयं पूरी तरह से आंतरिक-बाहरी मे बंटा हुआ है तो बाहर से शुरू करे। हर मनुष्य, हर पशु, हर पक्षी की उपस्थिति के प्रति सम्मान का अनुभव करे। अत्यंत नम्रता से, अत्यंत सौम्यता से शुरु करे। सचमुच बडा और बडा सुखी बन जायेगा। केवल ऐसे ही बडा बनने की कामना से आक्रामक बने रहने का क्या अर्थ है? 
वह तो पलायन है अपने आपसे। अपने हृदय में विश्राम करे, फिर हृदय केंद्र से पूरे शरीर मे व्याप्त रहे, फिर पूरे ब्रह्मांड में। कील स्थिर रहती है, कुछ नहीं करती, वह केवल उपस्थित है और पहिया चलता रहता है। कील की मौजूदगी पूरे पहिये मे व्याप्त है। ध्यान का स्वरुप कुछ ऐसा ही है।

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