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*राम विमुख जुग जुग दुखी, लख चौरासी जीव ।*
*जामै मरै जग आवटै, राखणहारा पीव ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
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*उपदेश चेतावनी का अंग ८२*
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मन मरकट माया चिरम, तृष्णा शीत न जाय ।
या परि वानर वृन्द१ मिल, सगा सगे को खाय ॥१९७॥
वन में वानर गुञ्जाओं की राशि संग्रह करके उसे अग्नि समझ कर, उसके चारों और बैठ जाते हैं, उससे उनका शीत नहीं जाता किन्तु समूह१ की गरमी से शीत कम लगता है, ये उससे शीत कम होना समझ लेते हैं, फिर कोई अन्य वानर आकर किसी वानर को हटाकर बीच में बैठना चाहता है तो एक दूसरे को काटने लगते हैं, वैसे ही मन माया का संग्रह करता है, उससे उसकी तृष्णा भी नहीं जाती किन्तु फिर भी सम्बन्धी सम्बन्धी से लड़ते हैं ।
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मांड१ माधुरी२ को धवै३, खलक४ खलावर५ पिंड६ ।
राम विमुख बाई७ बलै८, रज्जब इहिं ब्रह्मण्ड ॥१९८॥
ब्रह्माण्ड१ प्राणी माया२ के लिये दौड़ते३ हैं, साँसारिक४ दुष्ट५ जीव शरीर६ को खिलाने ही बन रहे हैं । इसलिये इन ब्रह्माण्ड में जैसे वायु७ के रोग का रोग संतप्त होता है, वैसे ही राम से विमुख प्राणी चिन्ता में जलते८ रहते हैं ।
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कारे१ केशों कृष्ण पख२, मैन३ रैन मधि चोर ।
रोम श्वेत रजनी सुकल४, तज तस्करता५ भोर६ ॥१९९॥
कृष्ण पक्ष२ की काली रात्रि में पृथ्वी पर चोर फिरते हैं, वैसे ही युवावस्था के काले१ केशों के समय काम३ हृदय में विचरता है, शुक्ल४ पक्ष की चाँदनी रात में तथा प्रात:काल६ चोर चोरी५ करना छोड़ देते हैं, वैसे ही वृद्धावस्था में रोम श्वेत हो गये हैं अब तो काम को छोड़ दे ।
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रज्जब रजक१ बुढापने, हेरि२ दिखाया हेत३ ।
चीर चिहुर४ की श्यामता, धोय करी सब श्वेत ॥२००॥
जैसे धोबी१ वस्त्र को धोके कालापन निकालकर उसे श्वेत कर देता है, वैसे ही देख२ बुढापे ने प्रेम३ दिखाया है, केशों४ की कालिमा धोकर सबको श्वेत कर दिया है ।
(क्रमशः)

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