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*दादू यहु घट काचा जल भरा, बिनशत्त नाहीं बार ।*
*यहु घट फूटा जल गया, समझत नहीं गँवार ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
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*काल का अंग ८४*
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ज्यों आभा१ आतुर२ उठैं, विलय होत नहिं बार ।
त्यों रज्जब तन काल वश, छिन में होसी३ छार ॥९॥
जैसे बादल१ अतिशीघ्र२ उठते हैं किन्तु उन्हें लय होते भी देर नहीं लगती, वैसे ही शरीर काल के अधीन है, क्षण भर में भस्म हो जायेगा३ ।
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जैसे श्रावण के समय, धनुष उदय आकाश ।
रज्जब पलटै पलक में, त्यों तन छिन में नाश ॥१०॥
जैसे श्रावण मास में इन्द्र धनुष आकाश में उदय होकर पलक में पीछा छिप जाता है, वैसे ही शरीर क्षण भर में नष्ट हो जायेगा ।
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दामिनी दमकहिं देखले, केतक१ बेर उजास२ ।
त्यों रज्जब संसार में, अस्थिर३ नाँही वास ॥११॥
हे प्राणी ! देखले, बिजली की चमक का प्रकाश२ कितनी१ देर रहता है, जैसे वह स्थिर नहीं रहता, वैसे ही संसार में स्थिर३ निवास नहीं रहेगा ।
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जैसे अहरणि१ उष्ण परि२, बूंद विलय ह्वै जाय ।
त्यों रज्जब देही दशा, हरि भज बार न लाय ॥१२॥
जैसे गर्म अहरन१ पर जल बिन्दु पड़कर२ तत्काल सूख जाती है, वैसे ही शरीर की दशा है क्षण भर में नष्ट हो जायेगा, अत: हरि का भजन कर, देर मत लगा ।
(क्रमशः)
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