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*कोटि यत्न कर कर मुये, यहु मन दह दिशि जाइ ।*
*राम नाम रोक्या रहै, नाहीं आन उपाइ ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
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*उपदेश चेतावनी का अंग ८२*
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रिण न उतार्या राम का, पिंड प्राण जिन दीन ।
रज्जब तिनहिं उधार दे, मन वच कर्म सो छीन ॥२०४॥
जिनने प्राणी को शरीर दिया है, उन राम का ऋण नहीं उतारा उतारा, अर्थात अपने को समर्पण नहीं किया और उलटा उन्हें उधार देता है अर्थात जो कुछ उनके निमित करता है वह पीछा लेने के लिये फलाशा रखकर करता है । हम मन, वचन, कर्म से यथार्थ ही कहते हैं, वह प्राणी संसार में ही क्षीण होगा ।
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पंच पचीसों त्रिगुण मन, कीड़े काया माँहिं ।
रज्जब राखै साधु ये, ज्यों वह खुलावै नाँहि ॥२०५॥
पंच ज्ञानेन्द्रिय, पच्चीस प्रकृति, तीन गुण और मन ये शरीर में कीड़ों के समान हैं किन्तु संत इनको वैसे ही रखते हैं जैसे ये उनको न खा सके ।
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शफरी१ शिशन सलिल सुमिरण मधि,
वास कुबुद्धि वपु विलयन होय ।
सोई जात रज्जब जल जप सौं,
मारि पकावै विरला कोय ॥२०६॥
जल में निवास करने पर भी मच्छी१ के शरीर की दुर्गध दूर नहीं होती किन्तु उसे मार कर जल में धोवे और पकावे तभी वह जाती है, वैसे ही शिश्नेन्द्रिय की चंचलता अर्थात काम-वासना रूप कुबुद्धि विषय स्मरण से नहीं जाती किन्तु नाम जप से मर कर उसे जलावे तभी वह जाती है । ऐसा साधक कोई विरला ही होता है ।
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इति श्री रज्जब गिरार्थ प्रकाशिका सहित उपदेश चेतावनी का अंग ८२ समाप्तः ॥सा. २६५२॥
(क्रमशः)
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