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*श्री दादू अनुभव वाणी, द्वितीय भाग : शब्द*
*राग गौड़ी १, गायन समय दिन ३ से ६*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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४४ - उपदेश चेतावनी । पँचमताल
मेरी मेरी करत जग खीना१, देखत ही चल जावै ।
काम क्रोध तृष्णा तन जालै, तातैं पार न पावे ॥टेक॥
मूरख ममता जन्म गमावे, भूल रहे इहिं बाजी ।
बाजीगर को जानत नाँहीं, जनम गँवावै वादी ॥१॥
प्रपँच पँच करै बहुतेरा, काल कुटुम्ब के ताँई ।
विष के स्वाद सबै ये लागे, तातैं चीन्हत नाँहीं ॥२॥
येता जिय में जानत नाँहीं, आइ कहां चल जावै ।
आगे पीछे समझै नाँहीं, मूरख यों डहकावै ॥३॥
ये सब भ्रम भान भल पावै, शोध लेहु सो साँई ।
सोई एक तुम्हारा साजन, दादू दूसर नाँहीं ॥४॥
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उपदेश द्वारा सचेत कर रहे हैं -
जगत के प्राणी "यह नारी मेरी है, यह सँपत्ति मेरी है" ऐसे करते - करते ही क्षीण१ हो जाते हैं और नारी तथा सँपत्ति भी देखते - देखते ही उनके हाथ से चली जाती है । काम, क्रोध, तृष्णादि हृदय को जलाते रहते हैं, इसीलिए सँसार से पार जा नहीं सकते ।
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मूर्ख ममता द्वारा इस सँसार रूप बाजी में ही मोहित रहते हैं और परमेश्वर रूप बाजीगर को न जान कर अपना जन्म व्यर्थ ही खो देते हैं ।
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पँच ज्ञानेन्द्रियों के तथा काल रूप कुटुम्ब के पोषणार्थ बहुत प्रपँच करते हैं और ये सब प्राणी विषय - विष के स्वाद में ही लगे रहते हैं । इसीलिए अपने वास्तविक हित को नहीं पहचानते ।
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इतना भी नहीं जानते - "कहां से आये हैं और कहां जा रहे हैं ।" पहले भोगकर आये उनको तथा अपने दुष्कर्म से होने वाले भविष्य क्लेशों को नहीं समझते, इसीलिए इस प्रकार विषयों में बहक जाते हैं ।
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इन साँसारिक सँपूर्ण भ्रमों को अच्छी प्रकार नष्ट करके प्रभु की खोज करता है, वही प्रभु को प्राप्त करता है । वह एक परमात्मा ही तुम्हारा सच्चा मित्र है, अन्य कोई भी नहीं है ।
(क्रमशः)
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