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*अजर जरै रस ना झरै, जेता सब पीवै ।*
*दादू सेवक सो भला, राखै रस जीवै ॥*
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साभार ~ Atul Verma
इधर मैं देखता हूं एक बड़े विचारक हैं, अब उम्र के आखिरी दिन हैं उनके। जिंदगी भर उन्होंने कोशिश की लोगों को समझाने की, अब बहुत फ्रस्ट्रेटेड हैं, अब बहुत विषाद है मन में। विषाद यह है कि कुछ भी हो नहीं पाया; कोई राजी नहीं हुआ, कोई बदला नहीं !
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लेकिन यह विषाद धार्मिक आदमी के मन में होना नहीं चाहिए। नहीं तो फिर तो धर्म भी दुकान हो गई, कि मैं दिनभर दुकान खोले बैठा रहा और कोई ग्राहक आया नहीं ! और जिंदगी हो गई, और माल की कोई बिक्री न हुई, तो मेरी जिंदगी बेकार चली गई।
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नहीं, यह सवाल ही नहीं है। जो ध्यान में गहरा उतर जाता है, उसे फिर परमात्मा की स्तुति सिर्फ उसका आनंद है, सिर्फ उसका आनंद है; वह उसमें ही संतुष्ट है। इससे आगे, इससे आगे का कोई हिसाब मन में अगर है, तो अभी ध्यान के बिना ही आप परमात्मा की तरफ चल पड़े हैं, इसे समझना। आप मन से ही चल पड़े हैं, इसे समझना।
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मन तो सब जगह दुकान खोल लेता है, धंधा बना लेता है। मन तो सब जगह अहंकार के लिए रास्ते खोजने लगता है। मन तो अहंकार का भोजन जुटाता है। और भक्त तो मुझमें ही निरंतर रमण करते हैं ! वे मुझमें ही डूबते—उतराते हैं, वे मुझमें ही डुबकियां लेते रहते हैं। यह मन से संभव नहीं है। यह मन से बिलकुल ही असंभव है। इसलिए मैंने कहा, इस सूत्र को ध्यान का सूत्र समझें।
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उन निरंतर मेरे ध्यान में लगे हुए और प्रेमपूर्वक भजने वाले भक्तों को, मैं वह तत्वज्ञान रूपी योग देता हूं जिससे वे मेरे को ही प्राप्त होते हैं। और हे अर्जुन, उनके ऊपर अनुग्रह करने के लिए ही मैं स्वयं उनके अंतःकरण में एकीभाव से स्थित हुआ, अज्ञान से उत्पन्न हुए अंधकार को प्रकाशमय तत्वज्ञान रूप दीपक द्वारा नष्ट करता हूं।
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ऐसी जिसकी चित्त—दशा निर्मित हो गई हो, कि जो परमात्मा में डूबता—उतराता हो, उसमें ही डुबकियां लेता हो, उसी में रमण करता हो, उसके अलावा जिसका कोई संसार न बचा हो; कहें, परमात्मा ही जिसका संसार हो गया हो; परमात्मा ही हो जिसकी वासना, परमात्मा ही हो जिसकी इच्छा, परमात्मा ही हो जिसकी प्रार्थना; सभी कुछ, सभी कुछ जिसका परमात्ममय हो गया हो—ऐसे व्यक्ति को, कृष्य ने कहा है, बुद्धि उपलब्ध होती है, बुद्धियोग उपलब्ध होता है।
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ऐसे व्यक्ति में प्रतिभा का जन्म होता है। ऐसा व्यक्ति पहली दफा बुद्धिमत्ता को, जिसको बुद्ध ने प्रज्ञा कहा है, उसको पाता है। बुद्ध ने तीन शब्दों का उपयोग किया है, वे उपयोगी होंगे इस सूत्र को समझने के लिए। बुद्ध ने तीन शब्दों पर सारी की सारी अपनी चितना को केंद्रित किया है। वे तीन शब्द हैं, शील, समाधि और प्रज्ञा। शील से अर्थ है, जो आप करते हैं। समाधि से अर्थ है, जो आप हो जाते हैं। और प्रज्ञा से अर्थ है, जो आप में खिलता है।
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शील से अर्थ है, आपका जीवन रूपांतरित हो। समाधि से अर्थ है, आपकी चेतना रूपांतरित हो। और प्रज्ञा से अर्थ है कि जब ये दोनों रूपांतरण घटित होते हैं, तो जो संपदा आपको उपलब्ध होती है, जो धन आपको मिलता है, जो परम धन आपको मिलता है। कृष्ण ने उस परम धन को बुद्धियोग कहा है।
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हमें थोड़ी हैरानी होगी, क्योंकि हम सब अपने को बुद्धिमान मानते हैं। और कृष्ण के हिसाब से बुद्धि तब उपलब्ध होती है, जब कोई व्यक्ति परमात्मा के साथ एक हो जाता है।
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गीता दर्शन भाग–5, अध्याय—10
OSHO
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