सोमवार, 16 सितंबर 2019

= *शरण का अंग ८३(१३-१५)* =


🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 *卐 सत्यराम सा 卐* 🇮🇳🙏🌷
*दादू साध सिखावैं आत्मा, सेवा दिढ कर लेहु ।*
*पारब्रह्म सौं विनती, दया कर दर्शन देहु ॥*
==================
**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
.
*शरण का अंग ८३*
.
देवी देव दरखत१ रहैं, यूं ल्हीलहरिया पीर । 
रज्जब ओले२ झाड़ के, घास बधै है वीर३ ॥१३॥ 
जैसे ल्हीलहरिया पीर(वृक्ष के कपड़े की लहरियाँ बांधते रहते हैं उसे ही ल्हीलहरिया पीर कहते हैं) वृक्ष१ की शरण में रहता है, वैसे ही अन्य देवी देवता भी वृक्ष की शरण में रहते हैं । हे भाई३ ! झाड़ की ओट२ में घास भी बढ जाता है, फिर शरण में रहने से मनुष्य की वृद्धि हो इसमें कहना ही क्या है ? 
अनल पंख पंख्यों बड़ी, पै शरण रहै आकाश । 
सो अहार उड़ती करै, डर पे धरती वास ॥१४॥ 
अनल पक्षी पक्षियों में बड़ा है, तो भी आकाश की शरण में रहता है, वह आहार भी उड़ते उड़ते ही करता है पृथ्वी पर बसने से डरता है । 
तकै१ दिशा२ को आसिरा३, शरणा छोड़ै साध । 
ताको क्या परमोधिये४, मूरख बुद्धि अगाध ॥१५॥ 
संतों की शरण को छोड़ कर अन्य के आश्रय३ की ओर२ देखता१ है, उसको क्या उपदेश४ करिये, वह तो अगाध मूर्ख बुद्धि का है । 
इति श्री रज्जब गिरार्थ प्रकाशिका सहित शरण का अंग ८३ समाप्तः ॥सा. २६६७॥ 
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें