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*सतगुरु चरण शरण चलि जांहीं,*
*नित प्रति रहिये तिनकी छांहीं ।*
*मन स्थिर करि लीजै नाम,*
*दादू कहै तहाँ ही राम ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
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*शरण का अंग ८३*
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शार्दूल१ सिंह सिंधुर२ सहित, रहैं शैल३ शरणाय ।
तो रज्जब शरणा बड़ा, नर देखो निरताय ॥५॥
चीता१ वा शरभ२ जंतु, सिंह आर हाथी३ के सहित अन्य वन पशु भी पर्वत३ की शरण में रहते हैं, तब हे नर ! विचार करके देख शरण ही बड़ा तत्त्व है ।
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जलनिधि में जल चर बड़े , तो१ सौ योजन देह ।
सो भी शरणे सलिल२ के, मन मत३ मानी४ येह५ ॥६॥
समुद्र में सौ-सौ योजन बड़े शरीर के जलचर जीव हैं, वे भी जल२ की शरण में रहते हैं, तब१ हे मन ! यह५ शरणागति का सिद्धान्त३ तुझे भी मानना४ ही चाहिये ।
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अरिल -
वृक्ष हि जाय विहंग१ अशन२ के आवतैं३ ।
तू तकि४ आतम राम डरी जमराव तैं ॥
ओले५ होय उबार सु शरणा चाहिये ।
परि हां रज्जब कही विचार पठंगा६ साहिये७ ॥७॥
भोजन२ की आशा से पक्षी१ वृक्ष की शरण आता३ है, वैसे ही यम राजा से डर कर आत्मस्वरूप राम की शरण देखना४ चाहिये । घासादि की शरण से बर्फ के कंकरों५ की भी रक्षा होती है । अत: हमने अपने विचार करके ही कहा है, यह शरणागत होने का संबंध६ सहायक७ है ।
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प्राण सु शरणे पिंड के, पिंड सु शरणे प्राण ।
शरणे का शरणे सुखी, रज्जब समझ सुजाण ॥८॥
प्राण शरीर की शरण में हैं और शरीर प्राणों की शरण में है, हे बुद्धिमान् ! तुम निश्चय समझो शरण में रहने वाला शरण में सुखी रहता है ।
(क्रमशः)
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