गुरुवार, 24 अक्टूबर 2019

= *निष्पक्ष मध्य का अंग ८८(४१/४४)* =

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*दादू पंथों पड़ गये, बपुरे बारह बाट ।*
*इनके संग न जाइये, उलटा अविगत घाट ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
*निष्पक्ष मध्य का अंग ८८*
जन रज्जब पख१ पैठतों२, पड़ै पिशुनता३ प्राण४ । 
निरपख मिल निर्दोष ह्वै, साधू संत सुजाण ॥४१॥ 
किसी भी पक्ष१ में प्रवेश२ करते ही प्राणी४ दुष्टता३ में आ पड़ता है और निष्पक्ष ज्ञानी संत से मिलकर प्राणी निर्दोष साधु हो जाता है । 
पखापखी मधि पिशुनता, प्राणि हु दुविध द्वन्द । 
जन रज्जब निरपक्ष नर, निर्वैरी निर्द्वन्द ॥४२॥ 
पक्षापक्षी में दुष्टता आ जाती है, और प्राणी दुविधा द्वारा द्वंद्वों में पड़ जाता है । निष्पक्ष नर निर्वैरी तथा निर्द्वंद्व बना रहता है । 
पखापखी में पिशुनता१, निरपख मन निर्वैर । 
मनसा वाचा कर्मना, रज्जब कही न गैर२ ॥४३॥ 
पक्षापक्षी में दुष्टता१ आ जाती है, निष्पक्ष मन वाला नर मन, वचन, कर्म से निर्वैर रहता है, यह बात मैंने अनुचित२ नहीं कही है । 
पाप पुण्य मूरख चतुर, झूठी जाति कुजाति । 
जन रज्जब सोवै१ सबै२, जो न अंधेरी राति ॥४४॥ 
यदि पक्ष-विपक्ष रूप अंधेरी रात्रि नहीं हो तो अपने अपने स्थान पर पाप, पुण्य, मुर्ख, चतुर, मिथ्या जाति कुजाति आदि सभी२ शोभा१ देते हैं, किन्तु पक्ष-विपक्ष होने से एक दूसरे की शोभा बिगाड़ देते हैं । 
(क्रमशः)

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