शुक्रवार, 25 अक्टूबर 2019

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🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*दादू जब लग जिय लागैं नहीं, प्रेम प्रीति के सेल ।*
*तब लग पिव क्यों पाइये, नहिं बाजीगर का खेल ॥*
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साभार ~ Soni Manoj

🌲 *रहस्यमयता की कामना मत करो* 🌲

यदि तुम ........
अभी भी ध्यान कर सको - भली भांति जानते हुए कि कोई विशेष घटना नहीं घटने वाली है, बस तुम अपनी साधारण वास्तविकता से एक हो जाओगे, कि तुम अपनी साधारण वास्तविकता के साथ लयबद्ध हो जाओगे - यदि ऐसे मन के साथ तुम ध्यान कर सको तो बुद्धत्व इसी क्षण संभव है । लेकिन ऐसे मन के साथ तुम्हें ध्यान करने जैसा ही नहीं लगेगा - तुम कहोगे, 'यदि कोई विशेष घटना नहीं घटने वाली है तो सब कुछ छोड़ ही दो ।'
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मेरे पास लोग आते हैं और पूछते हैं, 'मैं तीन महीने से ध्यान कर रहा हूं और अभी तक कुछ भी नहीं हुआ । एक कामना है, और वह कामना ही बाधा है । यदि कामना न हो तो वह इसी क्षण हो जाए । तो रहस्यमयता की कामना मत करो । असल में, किसी चीज की भी कामना मत करो । बस सत्य जैसा है वैसे ही उसके साथ सहज हो रहो ।
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साधारण हो रहो - साधारण होना सुंदर है । क्योंकि तब न कोई तनाव होता है, न कोई संताप । साधारण हो रहना बहुत रहस्यपूर्ण है, क्योंकि वह एकदम सरल है । मेरे देखे, ध्यान एक खेल है, एक क्रीड़ा है; ध्यान कोई कार्य नहीं है । लेकिन तुम्हें यह कार्य जैसा ही लगता है । तुम इसे कार्य की तरह ही लेते हो ।
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कार्य और खेल के बीच अंतर को समझ लेना अच्छा है । कार्य परिणाम-उन्मुख होता है, स्वयं में ही पर्याप्त नहीं होता । उसका लक्ष्य कहीं और होता है, किसी सुख, किसी परिणाम में होता है । कार्य एक सेतु है, साधन है । अपने आप में वह अर्थहीन है । उसका अर्थ लक्ष्य में है ।
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खेल बिलकुल भिन्न बात है । उसका कोई लक्ष्य नहीं है, या वह स्वयं ही लक्ष्य है । सुख उसके पार, उसके बाहर नहीं है; उसमें होना ही सुख है । तुम्हें उसके बाहर कोई सुख, उसके पार कोई अर्थ मिलने वाला नहीं है - जो कुछ है वह उसमें ही अंतर्निहित है ।
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तुम किसी लक्ष्य से नहीं खेलते, बस अभी उसमें आनंदित होते हो । वह निरुद्देश्य है । यही कारण है कि केवल बच्चे ही खेल सकते हैं; जैसे-जैसे तुम बड़े होते जाते हो वैसे-वैसे खेलने में तुम कम सक्षम होते जाते हो । लक्ष्य महत्वपूर्ण होता चला जाता है और तुम पूछने लगते हो, 'क्यों, मैं क्यों खेलूं ?'
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तुम अधिक परिणाम-उन्मुख होते चले जाते हो : इससे कुछ मिलना चाहिए, खेल अपने आप में पर्याप्त नहीं है । अंतर्निहित मूल्य तुम्हारे लिए अर्थ खो देता है । केवल बच्चे ही खेल पाते हैं, क्योंकि वे भविष्य की नहीं सोचते । वे समय की धारणा से मुक्त, अभी और यहीं हो सकते हैं ।
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कार्य है समय; खेल है समय-शून्यता । ध्यान खेल की तरह ही होना चाहिए, परिणाम-उन्मुख नहीं । किसी उपलब्धि के लिए ध्यान नहीं करना है, क्योंकि उसमें सारी बात ही खो जाती है । यदि तुम किसी उपलब्धि के लिए ध्यान कर रहे हो तो तुम ध्यान कर ही नहीं सकते । तुम ध्यान केवल तभी कर सकते हो जब तुम उसके साथ खेल रहे हो, उसका आनंद ले रहे हो, जब उससे कुछ पाना न हो बल्कि वह स्वयं में ही सुंदर हो । ध्यान के लिए ही ध्यान - तब वह समय-शून्य हो जाता है । और तब अहंकार नहीं उठ सकता ।
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कामना के बिना तुम स्वयं को भविष्य में प्रक्षेपित नहीं कर सकते, कामना के बिना तुम आशाएं नहीं कर सकते, और कामना के बिना तुम कभी निराश नहीं होगे । कामना के अभाव में, समय वास्तव में समाप्त हो जाता है : तुम शाश्वत के एक क्षण से शाश्वत के दूसरे क्षण में गति करने लगते हो । उसमें कोई श्रृंखला नहीं होती । और तब तुम कभी नहीं पूछोगे कि कुछ विशेष क्यों नहीं हो रहा ।
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जहां तक मेरा संबंध है, मैं तो अभी तक रहस्य को नही जान पाया । यह खेल ही रहस्य है; समय-शून्य होना, कामना-मुक्त होना ही रहस्य है । और साधारण होना ही लक्ष्य है । यदि तुम साधारण हो सको तो तुम मुक्त हो जाते हो, तब तुम्हारे लिए कोई संसार नहीं है । यह पूरा संसार असाधारण होने का एक संघर्ष है । कुछ लोग राजनीति में इसका प्रयास करते हैं, कुछ धन में करते हैं और कुछ धर्म में करते हैं, लेकिन वासना तो वही रहती है ।

🌵 ओशो 🌵 तंत्र-सूत्र ५🌵
६६ अंतस का आकाश और रहस्य से संकलन ॥
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