🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*दादू परम तेज तहँ मैं गया, नैनहुँ देख्या आइ ।*
*सुख संतोष पाया घणा, ज्योतिहिं ज्योति समाइ ॥*
=========================
साभार ~ Atul Verma
विज्ञान पहुंचा है पदार्थ को तोड़—तोड़ कर इस नतीजे पर कि अंतिम कण, अविभाजनीय कण, प्रकाश है। और धर्म पहुंचा है स्वयं के भीतर डूबकर इस नतीजे पर कि जब कोई व्यक्ति अपनी पूरी गहराई में डूबता है, तो वहां भी प्रकाश है; और जब उस गहराई से बाहर देखता है, तो सब चीजें विलीन हो जाती हैं, सिर्फ प्रकाश रह जाता है।
.
अगर यह सारा जगत प्रकाश रह जाए, तो निश्चित ही हजारों सूर्य एक साथ उत्पन्न हुए हों, ऐसा अनुभव होगा। हजार भी सिर्फ संख्या है। अनंत सूर्य! अनंत से भी हमें लगता है कि गिने जा सकेंगे, कुछ सीमा बनती है। नही, कोई सीमा नहीं बनेगी। अगर पृथ्वी का एक— एक कण एक—एक सूर्य हो जाए। और है। एक—एक कण सूर्य है। पदार्थ का एक—एक कण विद्युत ऊर्जा है।
.
तो तब कोई गहन अनुभव में उतरता है अस्तित्व के, तो प्रकाश ही प्रकाश रह जाता है।
संजय इसी तरफ धृतराष्ट्र को कह रहा है कि और हे राजन्…….।
लेकिन बेचारे धृतराष्ट्र को क्या समझ में आया होगा ! उसे तो दीया भी दिखाई नहीं पड़ता। सूर्य तो सुना है। हजार सूर्य कहने से भी क्या फर्क पड़ेगा, क्योंकि सूर्य का पता हो तो हजार गुना भी कर लें। धृतराष्ट्र को क्या समझ में आया होगा !
.
हजार—हजार सूर्य के उत्पन्न होने से जैसा प्रकाश हो, विश्वरूप परमात्मा के प्रकाश के सदृश वह भी कदाचित ही हो पाए।
लेकिन धृतराष्ट्र समझ गया होगा शब्द, क्योंकि सूर्य शब्द उसने सुना है, प्रकाश शब्द भी उसने सुना है, हजार शब्द भी उसने सुना है। ये सब शब्द उसकी समझ में आ गए होंगे। लेकिन वह बात जो संजय समझाना चाहता था, वह बिलकुल समझ में नहीं आई होगी। यही हम सब की भी दुर्दशा है। सब शब्द समझ में आ जाते हैं, और उनके पीछे जो है, वह समझ के बाहर रह जाता है। शब्दों को लेकर हम चल पड़ते हैं। संगृहीत हो जाते हैं शब्द, और उनके भीतर जो कहा गया था, वह हमारे खयाल में नहीं आता।
.
ईश्वर ! सुन लेते हैं, समझ में आ जाता है। ऐसा लगता है कि समझ गए कि ईश्वर कहा। लेकिन क्या कहा ईश्वर से? आत्मा! सुन लिया। कान में पड़ी चोट। पहले भी सुना था। शब्दकोश में अर्थ भी पढ़ा है। समझ गए कि ठीक। आत्मा कह रहे हैं। लेकिन क्या मतलब है? जब मैं कहता हूं घोड़ा, तो एक चित्र बनता है आंख में। जब मैं कहता हूं आत्मा, कुछ भी नहीं होता, सिर्फ शब्द सुनाई पड़ता है। शब्द भ्रांति पैदा कर सकते हैं, क्योंकि शब्द हमारी समझ में आ जाते हैं।
.
इसे ध्यान रखना जरूरी है कि शब्दों की समझ को आप अपनी समझ मत समझ लेना। उनके पार खोज करते रहना। और जो शब्द सिर्फ सुनाई पड़े और भीतर कोई अनुभव पकड़ में न आए, फौरन पूछ लेना कि यह शब्द समझ में तो आता है, लेकिन अनुभव हमारे भीतर इसके बाबत कोई भी नहीं! अनुभव से कोई हमारा अर्थ नहीं निकलता। तो ही आदमी साधक बन पाता है। और नहीं तो शास्त्रीय होकर समाप्त हो जाता है। शास्त्र सिर पर लद जाते हैं, बोझ भारी हो जाता है। आत्मा वगैरह तो कभी नहीं मिलती, शास्त्र ही इकट्ठे होते चले जाते हैं। और धीरे— धीरे आदमी उन्हीं के नीचे दब जाता है। धृतराष्ट्र ने सुना तो होगा, समझा क्या होगा!
.
ऐसे आश्चर्यमय रूप को देखते हुए, पांडुपुत्र अर्जुन ने उस काल में अनेक प्रकार से विभक्त हुए, पृथक—पृथक हुए संपूर्ण जगत को श्रीकृष्ण भगवान के शरीर में एक जगह स्थित देखा।
.
यह दूसरी बात। यह प्रकाश के अनुभव के बाद ही घटित होती है। यह सारी श्रृंखला खयाल में रखना— ऐश्वर्य, प्रकाश, एकता। जब तक हमें जगत में पदार्थ दिखाई पड़ रहा है, तब तक हमें अनेकता दिखाई पड़ेगी।
.
गीता दर्शन भाग–5,
अध्याय—11 OSHO

कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें