शनिवार, 26 अक्टूबर 2019

गुरुदेव का अंग १०७/११०

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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ Tapasvi Ram Gopal
(श्री दादूवाणी ~ गुरुदेव का अंग)
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*गुरु शिष्य प्रबोध का अंग* 
*दादू कहै, सिष भरोसे आपणै, ह्वै बोली हुसियार ।* 
*कहेगा सो बहेगा, हम पहली करैं पुकार ॥१०७॥* 
गुरु अपने शिष्य को घण्टानाद की तरह बार बार सुना कर उपदेश करते हैं-हे शिष्यो ! यदि तुम्हारे पास अपना तपोबल या ज्ञानबल है तो तुम अपने ही उस तपोबल या ज्ञानबल के सहारे किसी पर शाप या अनुग्रह करने की इच्छा करो, न कि मेरे बल पर । क्यों कि कदाचित् तुम्हारे वचन मिथ्या हो गये तो मेरी निन्दा होगी । यदि सत्य ही जाँय तो तुम्हारा तपोबल नष्ट होगा । इस प्रकार दोनों तरफ से हानि समझ कर शिष्य को चमत्कार नहीं दिखाना चाहिये । अपितु चमत्कार को दूर से ही हाथ जोड़ ले कि मैं कुछ नहीं जानता ! ॥१०७॥ 
*दादू सतगुरु कहै सो कीजिये, जे तूं सिष सुजाण ।* 
*जहाँ लाया तहँ लागि रहु, बुझे कहा अजाण ॥१०८॥* 
हे शिष्य ! यदि तूं चतुर तथा बुद्धिमान् है तो गुरु के वचनों में श्रद्धा कर के गुरुपदिष्ट साधन पथ पर चलता हुआ कभी भी साधना को न छोड़ । और बार बार गुरु के पास जाकर यह न पूछ कि- ‘इस साधना का क्या फल होता है?’ कभी अपने मन में ऐसी शंका न लाना कि- मुझे इस साधनपथ पर चलते हुए बहुत दिन बीत गये, लेकिन अभी तक उसका मुझे कुछ भी फल नहीं मिला । ये सब तो अश्रद्धा की बातें हैं । जब कि ज्ञानमार्ग में श्रद्धा ही फलवती होती है । श्रद्धावाला ही ज्ञान प्राप्त कर सकता है- ऐसा गीता का भी वचन है । अतः गुरुजनों में श्रद्धा रखनी चाहिये ॥१०८॥ 
*गुरु पहली मन सौं कहै, पीछे नैन की सैन ।* 
*दादू सिष समझै नहीं, कहि समझावै बैन ॥१०९॥* 
*कहै लखै सो मानवी, सैन लखै सो साध ।* 
*मन लखै सो देवता, दादू अगम अगाध ॥११०॥* 
उत्तम, मध्यम, कनिष्ठ भेद से शिष्य तीन प्रकार के होते हैं । उत्तम शिष्य को गुरु मन से ही उपदेश करते हैं । मध्यम शिष्य को नेत्र संकेत से एवं कनिष्ठ शिष्य को वाणी से उपदेश करते हैं; क्योंकि वह नयन संकेत से समझ नहीं सकता । 
कथनमात्र से जो सन्मार्ग पर चलता है वह मनुष्य है । जो गुरु के संकेत से ही समझ जाता है वह साधु है । 
जो साधक जिज्ञासु गुरु के मन के भावों को समझ जाता है वह देवतुल्य है । ऐसा शिष्य दुर्लभ है । प्रायः ऐसे शिष्य योगभ्रष्ट होते हैं । गीता में कहा है- “योगभ्रष्ट पुरुष पवित्र एवं धनवानों के गृह में ही पैदा होता है”। 
“मन की बात इतने प्रकारों से समझी जा सकती है- मुख के आकार से, इन्द्रियों की चेष्टाओं से, गति से, भाषण से एवं नेत्र या मुख के भावों से ।” 
“उत्तम शिष्य गुरु के विचार को ही समझकर पूरा कर देता है । कहने से जो मानता है वह मध्यम अधिकारी है । अश्रद्धा से जो गुरुवचनों को पूरा करता है वह कनिष्ठ व अधम है । जो कहने पर भी पूरा नहीं करता वह मनुष्य नहीं, उसे तो माता-पिता का मल ही समझना चाहिये ॥१०९-११०॥” 
(क्रमशः)

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