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*सब घट आतम एक विचारे,*
*राम सनेही प्राण हमारे ॥*
*दादू साची राम सगाई,*
*ऐसा भाव हमारे भाई ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*विवेक समता का अंग ८९*
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यथा आठारह भार की, विनश्यों सब की खेह ।
त्यों रज्जब रामहिं भजे, सो सब एकै देह ॥९॥
जैसे अठारह भार वनस्पतियों के जल कर नष्ट होने पर सभी की भस्म हो जाती है, वैसे ही जो राम का भजन करते हैं, वे सभी देहधारी एक ही हो जाते हैं ।
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माया माँटी सौं घड़ै, वपु बासण१ सु अनेक ।
रज्जब रिधि२ रज३ नाम बहु, अर्थ शोधतां४ एक ॥१०॥
मिट्टी के अनेक बर्तन१ बनाये जाते हैं उनके नाम तो बहुत हैं किन्तु अर्थ की खोज४ करने पर सबमें एक ही धूलि३ मिलती है, वैसे ही माया से अनेक शरीर बनते हैं, उनके भी नाम तो अनेक होते हैं, किन्तु अर्थ शोधन करने पर एक ही माया२ ही मिलती है ।
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कृत्रिम१ कुंभ मत२ छिद्र बहु, माँहिं ज्योति जगमौर३ ।
रज्जब प्राण पतंग परि, आय परैं इक४ ठौर ॥११॥
जैसे घड़े में बहुत से छिद्र होते हैं किन्तु उन सब में ज्योति एक सी होती है, पतंग किसी भी छिद्र द्वारा घड़े में पड़े , आकर पड़ेगा तो एक ज्योति में ही, वैसे ही माया के बनाए१ हुये संसार में बहुत - से सिद्धान्त२ हैं किन्तु उन सबके भीतर सार तो एक जगत के स्वामी३ ब्रह्म ही है, प्राणी किसी भी सिद्धान्त के द्वारा आये अन्त में जायेगा तो अद्वैत४ ब्रह्म रूप स्थान में ही ।
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रज्जब समता आवतें, मिनख१ देव सन्मान ।
धरणि गगन पाणी पवन, साक्षी शशिहर२ भान३ ॥१२॥
समता आते ही मनुष्य१ का देवता के समान सन्मान होता है । समता से महान होने की साक्षी पृथ्वी, आकाश, जल, वायु, चन्द्रमा२ और सूर्य३ देते हैं । ये सब में समभाव रखते हैं, इसी से इनको महान माना जाता है ।
(क्रमशः)

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