गुरुवार, 31 अक्टूबर 2019

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🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*दादू मिहीं महल बारीक है, गाँव न ठाँव न नाँव ।*
*तासौं मन लागा रहै, मैं बलिहारी जाँव ॥*
*दादू खेल्या चाहै प्रेम रस, आलम अंगि लगाइ ।*
*दूजे को ठाहर नहीं, पुहुप न गंध समाइ ॥*
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साभार ~ www.osho.com

मनुष्य ने सोचा है कभी? उन क्षणों में जहाँ मनुष्य चाहता है कि अद्वैत हो, वहां भी द्वैत ही रहता है। किसी से प्रेम है और मनुष्य चाहता है कि कम से कम यहां तो अद्वैत हो, एकता हो जाए। प्रेमी की तड़प क्या है? प्रेमी की पीड़ा क्या है? पीड़ा है कि जिससे एक होना चाहता है, उससे भी दूरी बनी ही रहती है। कितने ही पास चले जाए, गले से लग जाए-दूरी बनी ही रहती है। आत्मीय होकर भी आत्मीयता घटित नहीं होती।
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प्रेमी की पीड़ा ये ही है। चाहता है कि कम से कम एक से तो अद्वैत हो जाए - अद्वैत की आकांक्षा मनुष्य के प्राणों में छिपी हुयी है। ये गहनतम आकांक्षा है। जिसे प्रेम की आकांक्षा कहते है, उस पर ध्यान दें तो ये अद्वैत की ही आकांक्षा है। कि चलो सबसे एक न हो सके तो कम से कम एक से तो एक हो जाएं। कोई तो हो जिसके साथ द्वैत न रहे, और मिलन घटित हो जाए।
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प्रेम की आकांक्षा अद्वैत की आकांक्षा है। ठीक-२ मनुष्य ने कभी व्याख्या नहीं की। ठीक-२ विश्लेषण नहीं किया। ठीक से विश्लेषण मनुष्य यदि करे तो पायेगा कि धर्म प्रेम की आकांक्षा से ही जन्म लेता है। प्रेमी एक हो नहीं पाते क्योंकि एक होने के लिए मात्र प्रेम ही पर्याप्त नहीं है, केवल आकांक्षा ही पर्याप्त नहीं है; एक होने के लिए एक को देखने की क्षमता चाहिए।
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देखने की क्षमता तो मनुष्य मात्र की दो की ही है, मनुष्य सदा दो ही देखता है; भिन्नता को देखता है, भिन्नता तत्क्षण दिखाई दे जाती है। अभिन्नता दिखाई नहीं देती। सीमा दिखाई पड़ती है, असीम नहीं दिखाई पड़ता; लहरें दिखाई देती हैं, सागर नहीं दिखाई देता। मनुष्य कैसे दूसरों से भिन्न है, ये दिखाई देता है, दूसरों से कैसे अभिन्न है,ये दिखाई नहीं देता। अद्वैत तभी फलित हो सकता है, जब दो के मध्य जो शाश्वत सेतु है ही; वह दिखाई पड़े।
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जैसे कोई मनुष्य जंगल में भटक जाये तो वहां घर तो नहीं बना लेता? भटका हुआ मनुष्य तो राह खोजता है कि कैसे जंगल से बाहर निकल जाऊं? कितने ही सुंदर दृश्य हों आस-पास, उनको तो देखेगा नहीं, भटका हुआ मनुष्य तो खोजता है कि कैसे जंगल से बाहर निकल जाऊं? न तो वहां घर बनाता है, न वहां सुंदर फूलों को देखता है; न वहां के सुंदर वृक्षों से मोह को लगाता है। ये संसार अरण्यवत हो जाए यदि.................।
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एकमात्र बंधन है कि मनुष्य जीना चाहता है। ये बड़े आश्चर्य की बात है, मनुष्य देखे ! सड़क पर घिसटते हुए को-मरणासन्न है-फिर भी जीना चाहता है। मनुष्य ये कतई न सोचे कि कोई और होता उसकी जगह तो वह आत्महत्या कर लेता। जीने का मोह बड़ा गहरा है। मनुष्य कैसे भी स्थिति में जीना चाहता है।
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कुछ आत्महत्या कर लेते हैं : उनके सम्बन्ध में क्या? वे जो आत्महत्या कर लेते हैं, वे भी जीने की आकांक्षा से ही आत्महत्या करते हैं। उनकी जीने की शर्तें पूरी नहीं हो पाती, जीने की जो शर्त थी; वह टूट जाती है, इसीलिये वह मृत्यु को चुनता है। लेकिन मरता वो जीने की ही किसी विशेष शर्त के लिए है।
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जीवन तो है ही, ये कभी नहीं हो ही नहीं सकता। और ये बड़ा पागलपन है कि जो हैं मनुष्य उसी की आकांक्षा कर रहा है। ये ऐसा ही है कि पास में धन है और मनुष्य धन मांग रहा है और उसके लिए भिक्षा मांगते भटकता फिर रहा है।

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