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॥ श्री दादूदयालवे नमः ॥
स्वामी सुन्दरदासजी महाराज कृत - *सुन्दर पदावली*
साभार ~ महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य ~ श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*= फुटकर काव्य ४. आदि अंत अक्षर भेद - १/२ =*
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*दोहा*
*येकाकी जेई भये । करी न कोई टेक ॥*
*येक ब्रह्म सौं मिलि गये । कमधज साधू अनेक ॥१॥*
जो साधक साधना करते हुए, संसार में आसक्ति एवं वैयक्तिक हठ त्याग कर एकान्त में विचरण करने लगते हैं१, तथा जिनने अपने मन में किसी भी सांसारिक मत या वस्तु का आग्रह(आसक्ति) नहीं रखा और ब्रह्मसाधना द्वारा ब्रह्म में एकाकार हो गये- ऐसे अनेक सन्त लोक में हो गये हैं ॥१॥
योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थित: ।
एकाकी यतचित्तात्मा निराशीर परिग्रहः ॥
- भ. गीता, अ. ६, श्लोक. १०
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*दोऊ कुल तें ह्वै जुदो । इन कै संग न जाइ ॥*
*दोष छाडि पावै मुदो । इहां उहां सुख पाइ ॥२॥*
स्त्री पुत्र आदि सम्बन्धियों के या हिन्दू एवं मुसलमानों के कुल एवं विषय से पृथक रह कर ही दोनों लोकों में प्रधान अर्थ या प्रयोजन(परमात्मतत्त्व) की प्राप्ति की जा सकती है । अतः इन लोकों में आसक्ति नहीं करनी चाहिये ।
इस लोक या परलोक के दोनों पक्ष(ज्ञान एवं भक्ति) त्यागने पर ही परम सुख प्राप्त किया जाता है ॥२॥
(क्रमशः)

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