बुधवार, 6 नवंबर 2019

= *मेलग का अंग ९०(९/११)* =

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*यंत्र बजाया साज कर, कारीगर करतार ।*
*पंचों का रस नाद है, दादू बोलनहार ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*मेलग का अंग ९०* 
रज्जब घणों१ घणें२ नहीं, जे मन एक हि रंग । 
ज्यों सोलह स्वर तूर३ के, मिल बाजैं इक संग ॥९॥ 
जैसे नगारे३ के १६ स्वर होते हैं किन्तु सब मिलकर एक साथ ही बजते हैं । वैसे ही मन एक रंग में रंगे हो तो बहुत मनुष्य१ होने पर भी मिलकर रह सकते हैं, उनके बहुत विचार२ न होकर एक ही विचार रहता है । मृदंग के १६ स्वर ही नगारे के १६ स्वर होते हैं । वे १६ स्वर अंग १७८ की ३ साखी की टीका में है । 
तूम्बी सम जो आतमा, तिरहिं सु एक अनेक । 
सो संगति क्यों छोड़िये, रज्जब समझ विवेक ॥१०॥ 
जो तूम्बी के समान तारने वाला सन्तात्मा होता है, उसके आश्रय से अनेक प्राणी संसार से पार होते हैं । उस महात्मा की संगती क्यों छोड़ते हो ? उनसे मिलकर उनके ज्ञान को समझो । 
एक हु माँहिं अनेक हैं, है अनेकों में एक । 
रज्जब पाया संग का, पूरण परम विवेक ॥११॥ 
एक सांसारिक मनुष्य में अनेक विचार होते हैं और अनेक सन्तों में एक ब्रह्म का ही विचार होता है । यह सांसारिक प्राणियों तथा सन्तों के संग का परम विवेक हमने पूर्ण रूप से प्राप्त कर लिया है । अत: सन्तों से ही मिलना चाहिये । 
इति श्री रज्जब गिरार्थ प्रकाशिका सहित मेलग का अंग ९० समाप्तः ॥सा. २८५१॥
(क्रमशः)

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