शनिवार, 30 नवंबर 2019

स्मरण का अंग ८८/९१

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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी 
*(श्री दादूवाणी ~ स्मरण का अंग. २)*
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*कथनी बिना करणी* 
*दादू अलिफ एक अल्लाह का, जे पढ़ि जाणै कोइ ।* 
*कुरान कतेबां इल्म सब, पढकर पूरा होइ ॥८८॥* 
आयु स्वल्प है, शरीर क्षणभंगुर है, शास्त्र भी अनन्त हैं, उनका पूर्ण अध्ययन भी नहीं हो सकता । सब शास्त्रों, वेदों का मुख्य प्रयोजन यही है कि इसी जीवन में भगवान् की प्राप्ति हो जाय । अतः सब शास्त्रों का सार मूल हरि का नाम है उस को ही जपते रहना चाहिये । ऐसा करने से सब शास्त्र पढ़े जाते हैं । अन्यथा उनका पढ़ना-सुनना केवल श्रममात्र है । 
कल्याणप्रद भक्तिरूपी प्रवाह को त्यागकर जो केवल ज्ञानप्राप्ति के लिये यत्न करता है उसको केवल क्लेश ही मिलता है । जैसे स्थूल तुष कूटने वाले को परिश्रम के अतिरिक्त कुछ नहीं मिलता । 
जिनकी ग्रन्थि नष्ट हो गयी है और आत्मा में ही रमण करने वाले मुनि भी उस परमात्मा की अहेतुकी भक्ति करते हैं । क्योंकि श्री हरि का गुण ही ऐसा है ।
जो गोविन्द भगवान् की भक्ति करते हैं, उनको देवता भी प्रसन्न होकर शान्ति प्रदान करते हैं, पितामह(ब्रह्मा) भी उनका कल्याण करते हैं और मुनीन्द्र भी शान्ति प्रदान करते हैं ॥ 
उनके सब ग्रह शुभ हो जाते हैं, भूत-पिशाच भी उनके अनुकूल रहते हैं; ब्रह्मा आदि देवता भी प्रसन्न रहते हैं, उनके घरों में लक्ष्मी का स्थिर निवास होता है जो गोविन्द भगवान् की भक्ति करते हैं । 
गोविन्द की भक्ति करने वाले के शरीर में गंगा, गया, नैमिषारण्य, पुष्कर, कशी, प्रयाग कुरुजांगल देशों के तीर्थ उनके शरीर में स्वयं को पवित्र बनाने के लिये रहते हैं ॥८८॥ 
*दादू यहु तन पिंजरा, मांहीं मन सूवा ।* 
*एक नाम अल्लाह का, पढि हाफिज हूवा ॥८९॥* 
एक समय सम्राट अकबर ने अपनी राजसभा में स्थित श्रीदादूजी महाराज की परीक्षा से प्रसन्न होकर उनसे प्रार्थना की कि हे भगवन् ! यह इस सुवर्ण के पिंजरे में बैठा तोता है, इसे आप ग्रहण करें । आपके साथ यह तोता भी रामनाम जपता रहेगा । इस समय इस साखी पद्य के द्वारा महाराजश्री ने सम्राट को जो उत्तर दिया था उसी का भाव यह है- हे अकबर ! यह मेरा शरीर ही पिंजरा है, इसमें स्थित मेरा जीवात्मा सतत रामनाम जप कर पण्डित(हाफिज) हो गया है । यहाँ ‘पण्डित’ शब्द के अर्थ ब्रह्मज्ञानी है । क्योंकि ‘पण्डा’ कहते हैं ब्रह्मविषयक बुद्धि को । वह जिसको प्राप्त हो जाय वही पण्डित है । अतः यह मेरा जीवात्मा रूप पक्षी सतत रामनाम स्मरण से पहले ही पंडित हो चुका है । अब मुझे आपके इस पिंजरे और इसमें बैठे तोते से कोई प्रयोजन नहीं । अतः आप इसे वापस अपने महल में ही ले जाओ । लिखा भी है- 
“जो सार तत्त्व जानने वाले मेरे भक्त हैं, वे सदा भक्ति ही चाहते हैं । अतः हे प्रभो ! आपके चरणकमलों में मेरी निरन्तर भक्ति रहे ॥” 
“हे नाथ ! मुझे मुक्ति नहीं चाहिये, न सांसारिक धन-सम्पत्ति; किन्तु दोनों हाथ जोड़कर आपसे यही निवेदन करना चाहता हूँ कि मुझे स्वप्न, जाग्रत, उठते-बैठते, चलते-फिरते दिन और रात्रि में, सुख-दुःख में, मन्दिर या जंगल में रहते आपकी भक्ति ही प्राप्त हो ॥८९॥” 
*स्मरण नाम पारख लक्षण* 
*नाम लिया तब जाणिए, जे तन मन रहै समाइ ।* 
*आदि अंत मधि एक रस, कबहूँ भूल न जाइ ॥९०॥* 
वास्तविक हरि स्मरण तभी माना जाता है कि जब तन, मन और इन्द्रियाँ सभी हरिनाम स्मरण करती हुई भगवान् में लीन हो जायं । अर्थात् बाह्य ज्ञानशून्य हो जाय । वह स्मरण अखण्ड तैलधारा की तरह अखण्ड स्मरण होता है । भागवत में लिख है- 
मेरा मन सुनते, नाम जपते, तथा मंगलमयनाम-रूपों को याद करते एवं सभी क्रियाएं करते हुए भगवच्चरणकमलों में आविष्ट होकर संसार में फिर न आवे ॥९०॥ 
*विरह पतिव्रत* 
*दादू एकै दशा अनन्य की, दूजी दशा न जाइ ।* 
*आपा भूलै आन सब, एकै रहै समाइ ॥९१॥* 
भक्त क्षण भर भी भगवान् का वियोग नहीं सहन कर सकते, वे निरन्तर भगवत्परायण ही रहते हैं । और उनसे विमुख कभी नहीं होते; क्योंकि उनका शरीराध्यास दूर हो चुका है । उनकी सभी इन्द्रियां नाम स्मरण करते करते भगवद्रूप हो गयी है । अतः उनकी सदा एक ही दशा रहती है ॥ 
“हे प्यारे ! जो भगवान् की भक्ति(सेवा) करता है, वह संसार में अन्य पुरुषों की तरह नहीं आता, और न वह भगवान् के चरणकमलों को स्मरण करता हुआ उन्हें छोड़ ही सकता है; क्यों कि उस भक्त को उन के चरणों में ही रसास्वादन हो रहा है । अन्यत्र नहीं ॥९१॥” 
(क्रमशः)

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