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*दादू जे नांही सो सब कहैं, है सो कहै न कोइ ।*
*खोटा खरा परखिये, तब ज्यों था त्यों ही होइ ॥*
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साभार ~ ओशो लाइब्रेरी जयपुर
मुल्ला नसरुद्दीन अपने दो साथियों के साथ हज-यात्रा को गया। तीनों बड़े पहुंचे फकीर। एक मामला ऐसा बना कि एक गांव में बहुत मांगा, भिक्षा तो मिली ही नहीं। जो थोड़े-बहुत पैसे थे, तीनों ने इकट्ठे करके हलुवा खरीदा। हलुवा इतना कम था और भूख इतनी ज्यादा थी कि एक का ही पेट भर सकता था। तीनों में विवाद छिड़ा कि कौन भोजन करे? तीनों ने सिद्ध करने की कोशिश की कि किसका जीवन जगत के लिए ज्यादा उपयोगी है।
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मगर कोई निर्णय न हो सका। तीनों अपना-अपना दावा कर रहे थे कि मेरे बिना जगत खाली हो जाएगा। मेरी फिर बड़ी जरूरत होगी दुनिया को। और मेरा स्थान कभी भरा न जा सकेगा। विवाद इतना बढ़ गया कि दिन भर तो ऐसा विवाद में गुजर गया। सांझ हो गई। भूख जैसे बढ़ती गई,वैसे विवाद भी बढ़ता गया। गाली-गलौज पर नौबत आ गई। मार-पीट पर नौबत आ गई।
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फिर आखिर तीनों ने कहा कि हम फकीर आदमी हैं, ज्ञानी आदमी हैं, मार-पीट करना शोभा नहीं देता हलुवा के पीछे ! एक काम करो--मुल्ला नसरुद्दीन ने ही कहा--एक काम करो। हलुवे को सम्हाल कर रख दो, और हम तीनों सो जाएं। सुबह उठ कर जो बता सकेगा कि जिसने सबसे सुंदर सपना देखा--तीनों अपने-अपने सपने बता देना--जिसने सबसे सुंदर सपना देखा हो, सबसे धार्मिक, सबसे पुण्य का, वही हलुवे का मालिक हो जाएगा।
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बात जंची। तीनों सो गए। तीनों ने खूब कल्पना की कि कौन सा सपना सुबह बताना है। क्योंकि सपने कोई ऐसे मनचाहे तो आते नहीं। चाहो कुछ, आते कुछ हैं। पुण्य के चाहो, पाप के आते हैं। तुम ईश्वर को देखना चाहो, ईश्वर तो दिखाई ही नहीं पड़ते, शैतान दिखाई पड़ते हैं।
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खैर सपने का कोई सवाल न था, सुबह उठ कर तीनों ने कहा कि भाई, अपने-अपने सपने बोलो। अब तो भूख भी बहुत लग आई ! और अब तो बस हलुवा ही हलुवा याद आ रहा है।
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एक ने कहा कि मैंने सपना देखा कि स्वयं खिज्र...खिज्र सूफियों का मार्गदर्शक गुरु है;अदृश्य गुरु जो भटके हुए लोगों को मार्ग पर ले जाता है; जो पहुंचे हुए सिद्धों को भटकने नहीं देता, गिरने नहीं देता, सम्हाले रखता है। वह ऊंची से ऊंची बात है सूफियों में, खिज्र का दर्शन। तो उसने कहा, खिज्र का दर्शन हुआ। दर्शन ही नहीं हुआ, खिज्र ने एकदम गले से लगा लिया--आलिंगनबद्ध। अब इससे बड़ा और क्या हो सकता है ! हलुवा कहां है?
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दूसरे ने कहा कि रुको, यह कुछ भी नहीं है। क्योंकि मैंने देखा कि स्वयं परमात्मा...खिज्र-विज्र का हिसाब ही कहां है...स्वयं परमात्मा मुझे देखते ही एकदम सिंहासन से उठे और अपने सिंहासन पर पास में बिठाया। निकालो हलुवा कहां है?
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नसरुद्दीन ने कहा, मेरा सपना भी सुनो। मुझे पता नहीं किसने आवाज दी--परमात्मा थे, खिज्र थे, कि शैतान था, कौन था मुझे कुछ पता नहीं--सपने में मैंने आवाज सुनी कि अरे उल्लू के पट्ठे, पड़ा-पड़ा क्या कर रहा है? हलुवा खा ! सो मैं तो उठ कर हलुवा खा गया। क्योंकि आज्ञा का उल्लंघन...अब जिसने भी दी हो आज्ञा, मुझे कुछ पक्का पता नहीं। सपने में कौन चिल्लाया, कुछ मुझे पक्का पता नहीं। हलुवा अब नहीं है। वह तो पच भी चुका।
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सपने भी तुम्हारी नींद को सम्हालते हैं। सपने भी तुम्हारी नींद के अनुषंग हैं। और बहुत सपने तुमने बना कर रखे हैं। कोई खिज्र को देख रहा है, कोई खुदा को देख रहा है, कोई आवाजें सुन रहा है कि हलुवा अभी खा ! तुमसे अगर मैं कहूं: आंख खोलो ! तो तुम कहोगे, जरा ठहरो। जरा हलुवा तो खा लेने दो ! सपना ही सही, मगर कुछ तो है। ना-कुछ से तो कुछ ही भला।
*प्रेम पंथ ऐसो कठिन*
प्रवचन - १०
*ओशो*

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