मंगलवार, 31 दिसंबर 2019

= *सुकृत का अंग ९५(११७/१२०)* =

🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷

🌷🙏🇮🇳 *卐 सत्यराम सा 卐* 🇮🇳🙏🌷
*मन इन्द्रिय पसरै नहीं, अहनिशि एकै ध्यान ।*
*पर उपकारी प्राणिया, दादू उत्तम ज्ञान ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*सुकृत का अंग ९५*
सती१ उद्धरै धर्म सत, जती२ नाम जत३ राखि । 
रज्जब ये दोन्यों भली, सब संतन की साखि४ ॥११७॥ 
सदगृहस्थों१ का उद्धार धर्म तथा सत्य पालन से होता है और साधुओं२ का उद्धार हरि नाम चिन्तन तथा ब्रह्मचर्य३ से होता है । ये दोनों साधना अच्छी है, ऐसी ही सब संतों की साक्षी४ मिलती है । 
भाव१ भक्ति वैराग्य मधि२, शक्ति३ भक्ति सु गृहस्थ । 
रज्जब कही विचार कर, शोधर४ साधू मत्त५ ॥११८॥ 
वैराग्ययुक्त साधुओं में२ विचार१ तथा भगवद् भक्ति रूप साधना होनी चाहिये और गृहस्थों में धन३ से संतों की सेवा तथा ईश्वर भक्ति रूप साधन होना चाहिये । यह हमने संतों का सिद्धान्त५ खोजकर४ और उसे विचार के ही कहा है । 
सतीयें१ सुकृत चाहिये, जती२ अजब३ सन्तोष । 
रज्जब द्वै४ बिन दोय के, दीसै दीरघ५ दोष ॥११९॥ 
सदगृहस्थों१ को सुकृत अवश्य करना चाहिये सन्तों२ को महान३ सन्तोष रखना चाहिये । सुकृत और संतोष इन दो४ के बिना, गृहस्थ और साधु इन दो में महान्५ दोष दिखाई देता है । 
यति१ तृष्णा सति२ सूम गति३, द्वै ठाहर द्वै मार४ । 
जन रज्जब साँची कही, ता में फेर न सार ॥१२०॥ 
साधु१ में तृष्णा और सदगृहस्थ२ में कृपणता, ये दोनों चेष्टा३ रूप स्थान दोनों के लिये दंड४ प्रद है । यह हमने सत्य और सार रूप से कहा है । इसमें परिवर्तन को अवकाश नहीं है । 
(क्रमशः)

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