मंगलवार, 3 दिसंबर 2019

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🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*दादू दूजा कुछ नहीं, एक सत्य कर जान ।*
*दादू दूजा क्या करै, जिन एक लिया पहचान ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ निष्कर्मी पतिव्रता का अंग)*
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*जो मिले, उसमें संतुष्ट, उसमें संतुष्ट कौन हो सकता है? चित्त तो जो मिले, उसमें ही असंतुष्ट होता है। चित्त उसमें संतोष मानता है, जो नहीं मिला और मिल जाए। चित्त जीता है उसमें, जो नहीं मिला, उसके मिलने की आशा, आकांक्षा में। मिलते ही व्यर्थ हो जाता है। चित्त को जो मिलता है, वह व्यर्थ हो जाता है; जो नहीं मिलता है, वही सार्थक दिखाई देता है।*
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चित्त सदा ही असंतुष्ट है। चित्त का होना ही असंतोष है। यदि ऐसा कहें तो ज्यादा ठीक होगा कि चित्त और असंतोष एक ही वस्तु के दो नाम हैं। ऐसा नहीं कि चित्त असंतुष्ट होता है, बल्कि ऐसा कि चित्त ही असंतोष है। क्योंकि जिस क्षण संतुष्टि आती है, उसी क्षण चित्त भी चला जाता है। असंतोष के साथ ही मन भी चला जाता है। जिनके भीतर असंतोष न रहा, उनके भीतर मन भी न रहा।
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*मन उसकी आकांक्षा में ही जीता है, जो नहीं मिला है। इसलिए मन के लिए आवश्यक है कि जो मिला है, उससे असंतुष्ट हो; और जो नहीं मिला है, उसमें संतोष की कामना में जीए। जो नहीं मिला है, उसमें संतोष खोजे; और जो मिल जाए, उसमें असंतोष खोजे। यह हमारी चित्त-दशा है।*
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*श्री कृष्ण उलटी बात कह रहे हैं। वे कहते हैं, पुरुष को जो मिल जाए, उसमें संतुष्ट हो, तो फिर उसे कर्मबंध नहीं बांधते।* इन दोनों की प्रक्रियाओं को समझ लेना चाहिए। जैसी हमारी स्थिति है, उसमें जो मिलता है, वही असंतोष लाता है। रहस्य क्या है? कारण क्या है? अपेक्षा जितनी बड़ी, उतना बड़ा असंतोष। अपेक्षा जितनी छोटी, उतना कम असंतोष। अपेक्षा शून्य, असंतोष बिलकुल नहीं। ऐसा गणित है।
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अपेक्षा जितनी बड़ी, उतना बड़ा असंतोष। अपेक्षा जितनी छोटी, उतना कम असंतोष। अपेक्षा शून्य, असंतोष बिलकुल नहीं। ऐसा गणित है। कौन-सा पुरुष संतुष्ट होगा? वही पुरुष, जो अपेक्षारहित जीता है, जिसकी कोई इच्छा नहीं है। जो ऐसे जीता है, जैसे जीने के लिए कोई अपेक्षा की आवश्यकता नहीं है। फिर जो भी मिल जाता है, वही धन्यभाग। उसके लिए ही वह प्रभु को धन्यवाद दे पाता है।
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धन्यवाद का जो भाव है, वह उसी व्यक्ति में हो सकता है, जिसकी अपेक्षा कोई भी नहीं। जब अपेक्षा कोई भी नहीं, तो जो भी मिल जाता है, जो भी, उसमें भी वरदान खोजा जा सकता है। और जब अपेक्षा बहुत होती है, तो जो भी मिल जाता है, उसमें ही अभिशाप का आविष्कार हो जाता है; उसी में अभिशाप खोज लिया जाता है। खोज हम पर निर्भर है।
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और एक बार किसी व्यक्ति को यह रहस्य पता चल जाए, तो संतोष के आनंद की कोई सीमा नहीं है। असंतोष के दुख की कोई सीमा नहीं है; संतोष के आनंद की कोई सीमा नहीं है। असंतोष के नर्क का कोई अंत नहीं है; संतोष के स्वर्ग का भी कोई अंत नहीं है।
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श्री कृष्ण कहते हैं कि जो मिल जाए, उसमें जो संतुष्ट है, जो मिल जाए, जो प्राप्त हो जाए, उसमें जो राजी है; आभार से भरा, अनुगृहीत, और द्वंद्व के पार। दूसरी बात वे कहते हैं, द्वंद्व के पार, द्वंद्वातीत, दो के बाहर। *सारा जीवन ही द्वंद्व है हमारा। हम दो में ही जीते हैं। प्रेम करते हैं किसी को; परन्तु जिसे प्रेम करते हैं, उसे ही घृणा भी करते हैं। सम्पूर्ण मनुष्य-जाति का अनुभव यह है।*
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द्वंद्व है हमारा मन। जिसे हम चाहते हैं, उसे ही हम नहीं भी चाहते हैं। जिससे हम आकर्षित होते हैं, उसी से हम विकर्षित भी होते हैं। जिससे हम मित्रता बनाते हैं, उससे हम शत्रुता भी पालते हैं। ये दोनों हम एक साथ करते हैं। थोड़ा किसी एकाध घटना में उतरकर देखेंगे, तो विचार में आ जाएगा। हमारा मन प्रतिपल दोहरा है।
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जब कृष्ण कहते हैं, द्वंद्वातीत। *मन तो जीता है द्वंद्व में, सदा द्वंद्व में। मन तो जीता है सदा विकल्प में। सदा ही दो विकल्प खड़े रहते हैं। जो आप करते हैं, उसके विरोध भी आपका मन पूरे समय भीतर कहता रहता है। एक पैर भी आप उठाते हैं, तो मन का दूसरा हिस्सा कहता है, मत उठाओ। मन कभी भी सौ प्रतिशत, नहीं होता। एक हिस्सा निरंतर ही विरोध करता रहता है। जिस व्यक्ति का मन ऐसी अवस्था से भरा है, वह व्यक्ति द्वंद्व में घिरा है। वह सदा ही द्वंद्व में घिरा रहेगा। यह द्वंद्व यदि बहुत तीव्र हो जाए, तो वह व्यक्ति दो खंडों में टूट जाएगा।*

श्री कृष्ण कहते हैं, द्वंद्वातीत, द्वंद्व के बाहर, द्वंद्व के पार, दो के बाहर होता है अर्जुन जो, वही केवल कर्म के बंधन से मुक्त होता है। लेकिन दो के बाहर कौन हो सकता है? मन तो नहीं हो सकता। मन तो जब भी रहेगा, दो के भीतर ही रहेगा। दो के बाहर केवल वही हो सकता हैं जो मन को भी जानता है। घृणा द्वंद्व के बाहर नहीं हो सकती। प्रेम द्वंद्व के बाहर नहीं हो सकता। लेकिन जो प्रेम और घृणा को जानने वाला ज्ञाता है, वह बाहर हो सकता है। श्री कृष्ण कहते हैं, जो द्वंद्व के पार हो जाता है अर्जुन, वह समस्त कर्मों के बंधन से छूट जाता है।
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*यह जो पृथकता का बोध है, यह जो साक्षी का भाव है, वह द्वंद्वातीत ले जाता है। जो मिल जाए, जो प्राप्त हो, उसमें तृप्त, चित्त के द्वंद्वों के पार जो व्यक्ति है, वह कर्म करते हुए भी कर्म के बंधन में नहीं पड़ता है, ऐसा श्री कृष्ण, अत्यंत ही वैज्ञानिक बात, अर्जुन से कहते हैं।*

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